Thursday, March 30, 2017

हमारी औकात से बाहरका बिज्ञान

(लेखक:- अनिल कार्की , साभार- नैनिताल समाचार )
बचपन में ठुल दा के साथ हल जोतते हुए भौत बार भिमल के लचकिया सिकड़े से पीठ की मालिश हो जाया करती थी। पहले बाज्यू, फिर ठुल दा हल जोतने लगा। जब वह भर्ती हुआ तो दो तूल हल मैने भी बाया। लेकिन उसके बाद मैं भी गाँव के स्कूल से पिथौरागढ़ आ गया। फिर कभी बताल के बखत गाँव की तरफ लौटना न हुआ। सारा लाजम ईजा ही संभालती रही और बल्द जोतने का ठेका शिवदा को दे दिया। हम कभी-कभार गौं गये तो शिवदा के साथ हल पकड़ कर ‘ह ह’ कर देते थे बस। बाज्यू ने सिखाया था कि जिम्दार के खेत बंजर नी रहने चाहिए। धरती माता शाप देती है। इसलिए वो जब तक जिन्दा रहे, मर-तर कर हल जोतते रहे। ईजा ने कहा जब तक प्राण हैं तब तक मैं जमीन को बंजर नी होने दूँगी। ईजा के हठ के आगे हम दोनों भाई भी मजबूर होकर काम करते रहे और अभी भी कर रहे हैं।
इस बार ठुल दा को छुट्टी नहीं मिली तो मुझे ईजा का फोन आया, ‘‘कब आ रा है घर ?’’ मैने कहा, ‘‘अभी तो कुछ विचार जैसा ही नी है।’’ तो दूसरी तरफ से आवाज आयी, ‘‘विचार ही करो तुम लोग बस। मुझे ही बाँध ले जाना है शैद तिथान में इस लाजम को। तुम लोग तो सब बणी गये हो। देप्त बिगड़ गया है शैद, तभी बिरबुती रखे हो।’’
दूसरे दिन चुपचाप पिथौरागढ़ की तरफ चल दिया। पिथौरागढ़ में काव्य-गोष्ठी थी, उसमें कविता पढ़ी और अगले दिन रात्तिब्यान ही आँगन में पहुँच गया। ईजा तो खेत जा चुकी थी। द्वारों पर साँकल लगी पायी। बकरियों के बच्चों ने आँगन में खूब उछल-कूद मचा रखी ठैरी। साँकल खोल, झोला चाख में रख कर सीधे खेत ही चला गया। बुति-धानि की बाताल आई ठैरी गाँव में। हम जैसे फसकिया लोगों के लिए किसको टैम। खेत में पहुँच कर ईजा पैलाग कहा, तो उसने ‘जी रौ’ कहते हुए शिवदा से कहा- ‘‘ए शिबु झट घड़ी टेकी जा रे,’’ और मेरी और मुड़ कर कहा, ‘‘जा बल्द पकड़।’’ मैं ज्यों ही आगे बढ़ा कि शिवदा ने कहा, ‘‘काखी अब इतना पढ़-लिख कर बल्द जुतवाओेगी क्या भाया से?’’ ‘‘किसने कहा रे कि पढ़-लिख कर बल्द नी जोतते, तब तो पढ़-लिख कर खाते भी नी होंगे।’’
शिव दा ने दोरन्त दिया, ‘‘अब तो भूल भी गया होगा भाया बल्द जोतना।’’ ईजा ने मेरी ओर प्रश्नभरी नजरों से देखा तो लगा जवाब देना चाहिए। मैंने कहा, ‘‘नी नी भूला नी हूँ, क्यों भूलूँगा?’’ मैंने ईजा की तरफ बिना देखे ही ये बात कही थी, पर जानता हूँ उसके चेहरे पर क्या भाव रहे होंगे उस बखत। बारह बजे तक जुताई हुई। शिव दा ने कहा, ‘‘अब खोल देते हैं बैल। टैम हो गया है, भाया भी थक गया होगा।’’ बैलों को खोलने वाले विचार से तो ईजा सहमत दिखी, पर मेरे थकने वाले विचार पर उसने फिर कहा, ‘‘सत्तर साल से मैं नी थकी तो ये कैसे थक सकता है ?’’ उस बखत ईमान से मुझे पंजाबी कवि अवतार सिंह संधू ’पाश‘ की ये पंक्तियाँ याद है ।
पहले खूब बैल थे गाँव में। अब जमा पाँच हल बल्द रह गये हैं। इतने बड़े गाँव की जुताई का पूरा जिम्मा इन बैलों के कन्धे पर है। बैल भी उदास, भूखे-प्यासे और मरियल ही लगे। पैले तो वो बैल शुभ माना जाता था, जो दैं खेल कर अपने सीगों में मिट्टी लगा कर घर लौटता था। अब उत्तराखण्ड के मैंस ही गल्या बल्द हो गये हैं तो जानवरों से दैं खेलने की उम्मीद करना बेमानी है।
बैल भी हाल के हल गए थे लेकिन लगते थे, जैसे न जाने कितने बूढ़े। न सर पर फुन्ने, न सिंगों पर तेल, न ही कमर में जुडि़। कहाँ हरा गया होगा हमारे गाँव का रस, जबकि अभी वहाँ उतना पलायन भी नहीं हुआ है ? पहले तो बाज्यू कहते थे बल्द तो किसानों की शान होते हैं, इनके पेट नी पड़ने चाहिए। हमारे घर में जौं, मंडुआ और भट्ट एक में मिला कर आटा पीसा जाता था और फिर उसमें पीना (सरसों की खली) मिला कर खिलाया जाता था। तब इतने तगड़े बैल होते थे कि दो बेंत का चौड़ा नस्यूड़ा चार स्यु में पूरा खेत जोत जाता था। अब आजकल के बैल तो अच्छे से हल भी नी खींच पा रहे, न ही वैसे तजुर्बेदार हलिये मिट्टी की नब्ज पकड़ सकें। हाईस्कूल पास लड़के हल का हतिन्ना पकड़ने में कतराते दिखे। पिथौरागढ़ कालेज में बी.ए. कर रहे बच्चों को लगता है कि पढे़-लिखे को हल नहीं पकड़ना चाहिए। ये काम तो अनपढ़ गँवारों का काम है। फिर भला देश-प्रदेश गये लोग जो क्यों अपने खेतों की सुध लें ? पता नहीं पहाड़ के मैस कितने जो वेल एजुकेटेड हो गये हैं हमारे। बामण तो पहले ही हल से कतराने वाले ठैरे। खसिये तो हाल के वर्षों तक बैल जोत रहे थे अब लगभग सभी छोड़ रहे हैं। जो गरीब-गुरबे रह गये हैं, वही लोग हल जोत रहे हैं।
हल को गरीबी और अछूत समझने के पीछे जहाँ एक ओर पहाड़ी सामंती अभिजात चरित्र है, वहीं हाल हाल का बाजार और भूमण्डलीकरण के तीखे प्रभाव ने इसे हवा दी है। जहाँ एक तरफ हम फल और फूल उगाने वाले किसान के बारे में कभी-कभार अख़बारों में सचित्र खबर पढ़ लेते हैं, वहीं गम्भीर खाद्यान्न उगाने वाले किसान लगातार हाशिये पर धकेले गये हैं। नगद पूँजी कमाने और बाजार की चकमक से कौन बच सका है भला, फिर पहाड़ में तो बहुत कम जमीनें हैं। पर कई-एक सेरों में अच्छा नाज हो जाता है। लेकिन अब तो कई पहाडि़यों ने गाँव से अपना देवता भी शहर सार दिया है। लिंटर वाले मकान के सबसे ऊपर देवता थाप कर वहीं हो रही है देवता की भी मान-मिन्दी। सही ठैरा जब देश के सारे नेता और बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकारों के लिए देश बराबर दिल्ली और राज्य बराबर देहरादून हो गया है तो बेचारे उस लाटे देवता ने जो क्या बिगाड़ा।
बामन बुबू ने मरियल बैलों और हलियों की अकड़बाजी से परेशान होकर नया ‘हाथ ट्रैक्टर’ गाँव पहुँचाया है। बामन बुबू का कहना है, ‘‘नाती कौन कचकच सुने इन लोगों की, चाय पीकर गिलास तक नहीं धोते। उल्टा इनके नखरे सहो। ये हाथ टैक्टर चीज है, जै हो विज्ञान देवता की।’’
मैने पूछा कितने का पड़ा आपको ? तो बोले- ‘‘वैसे तो एक लाख बीस हजार का है, सब्सिडी में अस्सी हजार बैठा।’’ इतने में ईजा सुबह का कल्यो लाकर खेत आ गई और हाथ ट्रैक्टर को देखकर बोली, ‘‘दिगो बामणज्यू, तुम्हारी बैल की हल तो भौत अच्छी है ‘डिजल’ से चलने वाली। पंडित जी ने हँसते हुए कहा, ‘‘होय पाँच लीटर में चार घण्टे चल जाता है। पल्ले गाँव किराये पर दिया था वापस ला रहा हूँ।’’ मैं चौंका। मैंने पूछा, ‘‘किराये पर ?’’ तो शिव दा ने कहा, ‘‘हाँ भाया किराये पर दे रहे हैं गुरू ट्रैक्टर को।’’ मंने शिवदा से न पूछ कर सीधे गुरू से ही पूछा, ‘‘कितने पैसे में दे रहे हो ?’’ ‘‘चार सौ रुपये में सात बजे से लेकर बार बजे तक।’’ कहते हुए उन्होंने ट्रैक्टर स्टार्ट किया तो मैंने चुटकी लेकर कहा, ‘‘गुरू हल तो हल ही हुआ, लकड़ी का हो या लोहे का। कहीं आपके जजमान आपको हलफोड़ कहना शुरू न कर दें, खबरदार रहना।’’ एक घड़ी रुककर बोले, ‘‘जब इसमें जुताई वाली ‘फार’ लगाते हैं उस वक्त मैं इसमें हाथ नी लगाता। केसरी ही (मजदूर) जोतता है।’’
उनके जाने के बाद शिवदा ने उस ट्रैक्टर की कमियाँ (बुरायी) बतानी शुरू कीं, ‘‘भाया बल्द तो बल्द ही हुए। जो बात इस जुताई में है वो इस ट्रैक्टर में नहीं। फिर ये ट्रैक्टर आल-चाल, कन्सी-डिबाई नहीं लगने ठैरा। जुताई के बाद फिर कस्सी से आल-चाल सुधारने हुए। सभी जो ट्रैक्टर वाले हो जायेंगे तो बल्द किस काम आयेंगे ?’’ मैंने कहा, बात तू ठीक कह रहा शिवदा। पर विज्ञान भी तो कोई चीज है, आम आदमी का फायदा तो होने वाला ठैरा इसमें।’’


हल जोतते हुए शिवदा ने बल्द रोक दिये और गुस्से से बोला, ‘‘भाया अस्सी हजार का विज्ञान खरीदने की अपनी औकात नी हुई रे। ये तो कोई पैसे वाला ही खरीद सकता है। फिर क्या आम आदमी का फायदा हुआ इसमें ? हमारे पेट में तो पड़ गई ना लात।’’ फिलहाल मेरे पास शिव दा के इस सवाल का उत्तर नहीं था। मैं अवाक् रह गया। शिवदा ने पूरे जोर से बैल की पीठ पर भिमल का लचकदार सिपका जमाया और बैल तेजी से हल खींचने लगे। इस सड़ाक्क से मुझे अचानक ठुल दा याद आ गया।

Wednesday, March 29, 2017

मै जब लेख्लो त...

मैं जब  कविता माँइ  लेख्लो ब
 मेरा ईजा कि अनाऽर
गाऽड गोधरा लेख्लो्
चणा पिटिङा लेख्लो
बोट बटेउला लेख्लो
गणा खुनलान मणिको 
साउलो सोत्तर लेख्लो
नाऽजका गेणामेणानकि बात लेख्लो ।

डाङानका उच्चा भिटामाइ
पाठानलाइ दूद खोयुनोइ
घास चद्या बाकरो लेख्लो ।
संज्या बेला सिङमाई माटोलाइ
घर दउड्डो बल्लऽ लेख्लो ।

मै जब इजाका बारे माइ
कबिता बनौलो त
फिक्का चाहा कि कट्की लेख्लो
शिलामाइ पिसेको नून लेख्लो
बन मौरानको म ऽऽ लेख्लो।

मै जब इजाकाबारेमाइ
लेख लेख्लो त
मनमनै उनले गरेको भक्कल लेख्लो
केइ नसक्याऽ बेला गरेकि घाऽत लेख्लो
हलिभाणि बट्याएका बेला
                                                                                       उचाइन राख्खाकि खोज्याका
                                                                                     धोतिका गाँठा लुकाएका पैसा लेख्लो।

इजाका बारेमाई लेख्ख बार मै
निसुरी भयालै हाँसिरन्या
रुबस्या अनाऽरका बारेमाइ लेख्लो ।
जऽज्ज्यालै काममाइ लागिरन्या
खसरा हातौनका बारेमाइ लेख्लो
फुुटिबरे चिरा पड्याका खुुट्टानमणि लाएको
लिस्या मइनका बारेमाइ लेख्लो ।

इजाका बारेमाइ लेख्ख बार मइ
काज ब-यात सकिया पछा
अफना घर झानबाऽर
देलि पुज्जलाकि
पिलपिलऽ आँँसु बगऔनलाकि
चुुपचाप हिट्टलााकि
चेेलि बैनिनका बारेमाइ लेख्लो ।

जब लेख्लो मै मेरि इजाका बारेमाइ
सरकारी नौकरिमाइ लागेका चेेलाधेकि
छाति फुुलाएका बाबा हैलइ
बेरोजगार हुनबार
भुुलिउनाकि लेखा
इजाले भण्याका निकीऽ अर्तिपुर्ति
हँस्यौन्या हउस्यौन्या शव्दौनकि कुरणि लेख्लो ।

इजाका बारेमाइ लेख्दबार मै
मइले काम नपाएका
 बेरोजगार बिरामी दिनौनकि बाऽत लेख्लो
तनै दिनौनसित मैलाइ
ठगौन्या भुुलौन्या हमरौनकि
"गँवल्या- सरकार" का हालचाल लेख्लो
हमलाइ हकारिबरे खान पल्केका
" ठालु-हाकिम" का चालमाल लेख्लो,
मै केइ  बेदना लेख्लो
केइ बुक्कुलि लेख्लो ।
 इसो भयाबरे मेरि इजा
रिसाइबरे आजिलै भणऽलि ब!
" तै तसि सरकारका घर
आग लागौ वज्जुर पणौ
तो तसो हाकिम मुणकट्या
अल्पाइ अचिराइ होइझौ
पख् , मै ज्याब् गरलो " ।

( साभार:- उदियमान उत्तराखण्डी लेखक अनिल कार्कीका कबिताको बैतडेली भावानुबाद )



Saturday, March 25, 2017

‘सुदूर’को अलौकिक सौन्दर्य, २१ फोटोमा :: Pahilopost.com

‘सुदूर’को अलौकिक सौन्दर्य, २१ फोटोमा :: Pahilopost.com: दीपसागर पन्त


सौन्दर्यको खानी सुदूरपश्चिम पर्यटनको ठूलो सम्भावना बोकेको क्षेत्र हो। यात्रीलाई मोहनी लगाउन थुम्काथुम्काबाट गाउँले युवतीझैँ जिस्क्याइरहन्छ, यहाँको अद्‍भुत…

गाउँका गराहरुमा उम्रिदै गरेका सपना

पृृष्ठ-प्रबेश

 बैतडी जिल्ला सदरमुकामबाट १४ कि मि मात्र टाढा रहेको मेरो गाउँ यस बर्षमात्रै सडक संजा्लसंग जोडिएकोछ । यो नयाँ ग्रामिण सडकमा देहिमाण्डौको पक्की राजमार्ग हुदै टेक्टर, जीप र मोटरसाइकलहरु निर्बाध चलिरहेकाछन् । यो सँगै केही नयाँ सपना र केही नयाँ चाहना पनि गाउँ भित्रिन थालेकाछन् । समय र परिस्थितिले समकालीन समाजलाइ कता डो-याउला ? ठ्याक्कै भन्न गारो छ । तर बदलिदो विश्व परिबेशमा मेरो प्राकृत जन्मथली बामे सर्न प्रयास गरिरहेको अडकल सहजै गर्न सकिन्छ । यिनै प्राथमिक पाइलाहरुको सानो परिचय यो आलेखमा राखिएकोछ।
समुद्र सतहबाट झण्डै ८२२-११६६ मिटर सम्म उचाईमा रहेको यो गाउँ तत्कालिन दुर्गास्थान गा बि स को सबैभन्दा बढि जनसंख्या भएको बस्ती हो । हालको पुनर्संरचनामा दशरथचंद नगरपालिकाको सात नम्बर वडामा समाबेश यो गाउँमा बिगत १० वर्षदेखि नै बिद्युत सेवा उपलब्ध थियो । ग्वाल्लेकधुराको पश्चिमी पार्श्वबाट बग्ने खोलाहरुले गर्दा पुरै बस्तिमा पानीको सुबिधा प्राप्त छ । ससाना कुलाहरुको मर्मत हुनसके सबै जसो जमिनमा सिँचाइ पुग्न सक्ने अबस्था छ । सारांशमा यहाँ जल, जमिन, जंगल र जनश्रमको छेलोखेलो छ । यहाँबाट बग्ने बगडागाड नै रौलाघाट हुँदै स्याडीगाडमा मिसिएकोछ र यसै गाडबाट निकालिएका कुलाहरुले पुजारागाउँ, स्याडी, कपर्त, धनचुलि र बगाउँसम्म सिन्चन गरिरहेकाछन् । हाल निर्माणाधिन बृहत्तर सुर्काल खाानेपानी योजना तयार भएमा गाउँभरि सिचाईको यथेष्ट सुबिधा प्राप्त हुने  आशा गर्नसकिन्छ ।
तत्कालिन दुर्गास्थान गाबिसको आबधिक योजना पुस्तिका २०७३ का अनुसार कुल साना ठुुला गरि १८ वटा बस्तिमा यहाँ २३९८ जना बसोबासि छन । गाबिस श्रोतका अनुसार कृषि र पशुपालनमा ९०% मानिस सँलग्न छन र ९८% घरधुरिको आफनै खेेति र पशुपालन ब्यबसाय छ । असीमकेदार मन्दिर र ग्वाल्लेक केदार धामको अवस्थितिले यो गाउँँ ऐतिहासिक र धाार्मिक दृष्टिले पनि महत्वपुर्ण छ । तर, बिडम्बना, समष्टिमा यहाँको गरिबी दर ३८.६८% आकलन गरिएकोछ । खान पुगेर खााद्यान्न बेच्नेहरु १०% होलान, ३० % ले मात्र यहाँको उत्पादनले गुजारा गर्न भ्याउछन् । यसरी हेर्दा यहाँको परम्परागत खेेतिप्रणाली र परम्परागत खाानपानका तरिकाहरुमा पनि परिवर्तन गर्नुपर्ने टडकारो आबश्यकता छ । र बिस्तारै कृषिलाई ब्याबसायिकरण गर्नु पर्ने देखिन्छ ।

ब्याबसायिक कृषिका सम्भावना

उल्लेखित पृष्ठभुमीको यो गाउँमा ब्याबसायिक कृषिको उच्च सम्भावना रहेकोले आधुुनिक सोच सहित खेेतिपातिमा आधुुनिकिकरण गर्नुपर्ने देखिन्छ । यसकालागि माटो र हावापानी मिल्ने गरि उचित उन्नत बिउबिजनको ब्यबस्था, गोठेमलको उचित ब्यबस्थापन र प्रयोग, साना सिँचाइकालागी कुला-पोखरीहरुको निर्माण, अत्याबश्यक कीटनाशक बिषादिहरुको उपलब्धता, उत्पादित कृषिउपजको बजार ब्यबस्थापन, आधुुनिक कृषिऔजारहरुको प्रयोग, कृषिसडकहरुको निर्माण, उच्चमुल्यबालीको खेेतिको शुुरुवात, कृषि बन प्रणाली र गरा खेेति प्रणालीको शुुरुवात, बैकल्पिक उर्जाको प्रयोग, भुुक्षय नियन्त्रण र जलाधार क्षेत्र संरक्षण, चरनक्षेत्र बिकास, बाताबरणिय चेेतना र लोपोन्मुख बाली संरक्षण जस्ता कार्यक्रमहरुसंग गाउँले किसानहरुलाई परिचित र प्रशिक्षित गराउनु पर्ने हुन्छ ।
यसरी आधुुनिक कृषिको शुुरुवातकालागि उदाहरणिय नमुना हुनेगरि परम्परागतरुपमा धान र गहुँखेतिमात्र गरिने गाउँकै उच्चसमस्थलीमा रहेको खाँण खेतलाई प्रयोग गर्न सकिन्छ । करिब २०० रोपनीको यो समथल ऐतिहासिक- धाार्मिक शस्यश्यामला उर्बर खेेतमा गाऊँका प्रतेक बासिन्दाको भाग हुनैपर्ने मान्यताका कारण खण्डीकरण रोक्नुपर्नेे देखिन्छ । यो खेेतमा बर्षातको पानिबाट मात्र सबैले एकै पटक रोपाई गर्दाको हतारो र हडबडका किस्साकहानीहरु अहिले पनि गाउँमा ठट्यौलिका बिषय हुन्छन ।यो मैदानमा भुुमिगत श्रोतबाट पनि पानीको जोहो गर्नसकिन्छ । त्यसैगरि खोला छेउछाउका खरफगाला र बाँझो जमिनमा दालचिनी, अमला, तेजपत्ता र रिठा तथा डालेघाँस लगाउन सकिन्छ । खोला किनारमा अलैची, अदुवा र बेसार खेेतिका उच्च सम्भावना छदैछन । ग्वाल्लेक शिखरबाट बग्ने आधाा दर्जन जति खोलाहरुमा टाउट माछा लगायतको सम्भावनातर्फ पनि परिक्षण गर्न सकिन्छ ।
यसै सिलसिलामाबेसीको बगडाखेत वारिपारि अहिले पनि आलुखेति र तरकारी बीउ उत्पादन गरेको रमाइलो दृश्य दृष्टिगोचर हुन्छ । यसलाई ब्याबसायिक बनाउदाको उपलब्धिबारे कृषकहरुलाइ जागरुक बनाउनु छ ।यसरी तत्काल गाउँ वरपरको ३०० रोपनी जति जमीनलाई तरकारी पकेटको रुपमा बिकास गर्न सकिने सम्भावना छ । तरकारी खेेतिका लागि यो स्थान अती उत्तम रहेको कुरामा कृषि बिशेषज्ञहरु समेत एकमत छन् । त्यसो त सुर्कालको चोतो ( स्थानिय ठुुलो डल्लो मुला ) र घिउले उहिलेदेखि नै यो भेेगभरि चर्चा पाएकै हो । स्थानिय रैथाने बिउको संरक्षण सम्बर्धन भएमा तरकारी खेेतिको बिकासतर्फ नमुना योग्य काम मानिनेछ । यो गाउका खोलाहरुमा रहेका ५/७ पानी घट्टमा यहाँको अर्ग्यानिक उत्पादन कुटानी पिसानीगरि प्याकेजिंग गरेर बजारमा ल्याउदाको महत्वलाई पनि ब्यापारिकरण गर्नु आजको सन्दर्भमा सारै सामयिक लाग्दछ ।

हालसम्मका प्रयास

स्थानिय श्रोत जुटाएर असंगठित रुपमै भएपनि बिगत ८/१० बर्षदेखि यहाँ कृषि र पशुपालन सम्बन्धि केही आशलाग्दा काम भएकाछन् ।बचतका अतिरिक्त टुक्रे रुपमा तरकारी खेेति गर्ने, उन्नत बाख्रापालन गर्ने जस्ताकांममा केही उत्साही युवाहरु सक्रिय देखिन्छन्  । तर बाहिरको नगण्य सहयोग र पुराना स्थापित कृषकहरुको पुरानै सोचका कारण आशाातीत उपलब्धि देखिएन । शुुरुशुरुमा त तरकारी लगाउदा खेेति गर्ने भन्दा माग्ने धेेरै भएको गुनासो सुनिन आयो । त्यसैमा पनि असमानता र अभावको घाउलाई बल्झाएर पसल चलाउन खोज्ने कथित नक्कली नायकहरुले गर्दा नयाँ चााहनाका प्रयास समेत त्यति सफल भएनन् ।
हाल कृषिसमुहमा बिधिबत दर्ता भएको असीमकेदार तरकारी कृषक समुहले छोटो समयमै बचत परिचालनबाट २ लाख जतिको कारोबार गरि कोषमा करिब एकलाख बचत गरेकोछ। यो समूहले बिस्तृत छलफल पश्चात् कृषिबिकासको बिस्तृत कार्यक्रम बनाएकोछ । यसरी दीर्घकालीन कृषिबिकासका योजना संचालन गर्न गराउन समूहले सक्रियता देखाएको छ । सबै क्षेत्र र निकायबाट सहयोग प्राप्त भएमा " उन्नत कृषि- समुन्नत जीवन, हाम्रो गाउँको नयाँ चिन्तन " भन्ने समूहको आदर्श वाक्यले मुर्त रुप लिनसक्नेमा बिश्वस्त हुनसकिन्छ । यिनै संभावना र प्रयासका अन्तरघुलनबाट हुने उपलब्धिले एउटा समुन्नत समाजको श्रृ्जना हुनेछ भन्नेमा पनि स्थानिय आशाबादी बनेकाछन् । " हाम्रो गाउँ हाम्रो शान; हाम्रै प्रयास हाम्रै पहिचान" को नारा बोकेको स्थानिय युवकहरुको दूरगामी सोचमा गाउँको उज्यालो भबिष्य चम्किएको देखिन्छ।