सभ्यताओं की यात्रा पर गए हुए वर्तमान का गीत
किसी एक समय
भेड़ों का एक रेवड़ आपदा में दब गया
और एक भेड़ बची
सुविधा अनुसार और दृष्टि के अनुसार बचा भी कह सकते हैं आप
भेड़ की पीठ पर
एक कड़बज लदा रहा
जिसमें नमक बचा रहा !
पसीने का स्वाद नमक की तरह ही होता है
रकत भी नमकीन होता है
आंसू की धार भी नमकीन होती है
बहती नाख भी नमकीन होती है !
पसीने से बनी औरत को मैं आज भी माँ कहता हूँ,
प्रेमिका कहता हूँ, बहन, बेटी कहता हूँ ,
रक्त से बने आदमी को मैं आज भी अपना पुरखा कहता हूँ ,
आँसू की धार को मैं आज भी
षडयंत्रों से मारे गये अपने शहीद पुरखों
की गुमनाम की कब्र कहता हूँ ,
और बहती नाक को मैं आज भी दुधमुहे बच्चे की तरह देखता हूँ
जो भविष्य में फूटंगे विद्रहों सा
कि जिनकी नाक सूंघ लेगी अपने पूर्वजों की आदिम गंध !
और नमक को मैंने जीवन कहा है
क्योंकि पहाड़ मीठे नहीं होते
लेकिन उन्हें खारा कहना उनका अपमान करना है !
मैं २१ वीं सदी के प्रथम दशक को पार करता हुआ
आ ही पहुंचा यहाँ तक
और मेरे पुरखे
राम नदी, अलखनंदा भागीरथी से लेकर कर
पनार , सरयू और गोरी-काली के किनारे
आज भी प्रेतयोनि में भटक रहे हैं
उन्हें भटकाना है अभी
कि जब तक मैं अपने जाति प्रमाण पत्र में लिखता रहूँगा हिन्दू
और कोष्टक में राजपूत
मेरे पुरखे जिनको इतिहास में कुचक्रों का
शिकार होना पड़ा है बार-बार
वो दुनिया के नक्शे में
पनार की तरह है,
राम नदी की तरह है,
और सरयू की तरह है,
दक्षिण अफ्रीकाई नदियों की तरह है
जिनका जल जल स्तर अब लगातार घट रहा है !
‘पकाहू-आरा’ कबीले की तरह है *
जिसे ब्राजील के रबड़ व्यापारियों ने मिटा दिया है
मेरे पुरखे जो पैक (पहलवान) थे
किसी तरह से कुचल दिए गये ,
क्योंकि वे प्रेमी थे !
और प्रेमी कुचल दिए जाते हैं आज भी
उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बनता है प्रेम करना
लेकिन वे अलमस्त फकीरों की तरह करते रहे हैं , फिर भी प्रेम!
मेरे पुरखे ग्वाले थे , अहीर थे
इतिहास में उन्हें अनपढ़ और मलेच्छ घोषित किया गया हर बार
लेकिन सुना है कि वे भी लड़े थे महाभारत युधिष्टर की ओर से
और तिब्बत की चोटियों का पीला सोना
उनके बकरियों के खांकर पर चमका करता था !
उनके आँफरों पर बनते हथियार
क्या वो चरवाहे थे ?
वो इतिहास के उन पृष्ठों के पीछे जिन्दा हैं
जिन पृष्ठों पर राजाओं और अवतारों का बोझ हैं और उन कथाओं में जिन्दा हैं
जिन्हें आज भी गाता है
मेरा भाई किसी जंगल ,आगन-पटागण
मेरे ही पुरखे हैं जिनकी कथाओं में आज भी जीने कसक हैं
सवाभिमान की ठसक के साथ
हाँ मेरे ही पुरखे
जिन्हें 21 वीं सदी के
पहले दशक के बीत जाने के बाद
आज मैं अपने माथे, सर और अपनी गुमनाम पहचान के साथ ढो रहा रहा हूँ
जो भैस चराते थे और पहाड़ों के सर पर हरे बाँस की बासुरी बाजते थे
प्रकृति और स्त्री के आदिम काल के रहस्यात्मक सबंध
मेरे चरवाहे पुरखों के कंठ से किसी पहाड़ी जलस्रोत से फूटते थे
जिनकी दुनाली मुरली में बसता था
मेहनत से उपजा संसार का महान सौन्दर्यशास्त्र
उन्होंने जानवरों को प्राणों की तरह किया था प्यार
उनके प्राण भैसों में बसते थे
इसीलिए उन्हें भैस बड़ी लगती थी
और अक्ल छोटी
अपनी भैसों को उल्टी पनार की दिशा में दौड़ाते थे वे
क्या वे किसी अनार्य रूद्र के वंशज थे ?
जिसे आर्यों से भंगेड़ी चरसी और अड़ीयाठ घोषित कर दिया
बेचारी बलत्कृत आर्यों की औरतें फल खाकर
गर्भवती होने का ढोंग रचती रहीं
पुरोहितों के आश्रमों में मुँह ढककर रोती रहीं
और जनती रही विकलांग चक्रवर्ती सम्राटों को
जिनके लिए मेरे पुरखे हमेशा बने बैसाखी!
उस समय भी समुद्र मंथन का सारा विष परिधि पर खड़ा मेरा पुरखा पी रहा था
आज भी माथे जा रहे है पहाड़, पर्वत, नदियाँ, समन्दर
और आज भी पी रही है मेरी पीढ़ी विष
और आज भी पहाड़ बने हुए है
जीते जी उनके स्वर्गारोहण की सीढ़ी !
क्या मुझे नहीं कहना चाहिए कि
मैं भी उसी कतार में खड़ा हूँ जिस कतार में खड़े है मेरे भाई
काले, हब्सी, अफ़्रीकी बलूची आदिवासी और अब फिलिस्तीनी भी
क्या मुझे नहीं कहना चाहिए कि
मेरी ही संस्कृतियों को ब्रांड की तरह डिब्बा बंद कर
वह मुझे ही बेच रहे हैं
कितने सारे रंगों से भर दिए गये हैं हमारे चहरे
क्या हम पहचान सकते है अब अपनी माँ चेहरा
क्या हम पिता की दुखती रगों पर
लगा सकते है अपार करुणा का लेप ?
क्या हम एक भीतरी यात्रा पर निकल सकते हैं
हजारों वर्ष पहले
सरयू , राम और काली कोशी के किनारे
अपने पुरखों की शिनाख्त और
अपने चहरे को ढूंढने?
मैं सुनता हूँ आर्तनाद
गहन जंगलों के भीतर
मेरे पुरखे चीखते हैं
बहते हैं खोद कर बनाई गयी भयानक सुरंगों में
वो चीखते है
दबते है खड़िया की खानों में उनके प्रेत
वो चीखते हैं
सूखती हैं नदियाँ
वे चीखते है
और अल-सुबह एक गहरे कुहरे की चादर ओड़ लेते हैं पहाड़
नीम खामोशी की तरह
एक मातमी माहोल में
आज भी जनती है हमारी माँएं बच्चे
आज भी चूल्हे के किसी डिलकण
डाल दी जाती है हमारी गर्भनाल
कि नहीं रहेंगे हमारे चूल्हे बिना आग के
कि उठता रहेगा उनसे धुवां
भयानक आपदाओं के बाद भी
और जलते रहंगे चूल्हे
21 वीं सदी के पहले दशक के बीत जाने के बाद भी
हमारी माएं जानती है
लौंटेंगे एक दिन
उसके अफसर हुए बेटे
अपनी नदियों की तरफ
उस वक्त
फिर से कुनमुना शुरू करेगा धरती का वक्ष
बसंत धरती की गोद में उतरेगा
एक बच्चे की तरह
और तांबई बाहों वाले हमारे बच्चे
निकट भविष्य में
पहाड़ों के सर पर बजायेंगे
हरे बाँस की मुरूली !
***
असहमतियाँ
तुम मिलोगे मिलकर चल दोगे
और सूरज का चिथड़ा झांकता रह जायेगा
हाथों की नरमी के बदलते मौसम सा
धूप छांह होता हुआ
चाय की गिलासों के तलों पर बच जाएँगी
असहमतियां
सिगरेट की ठुड्डीयों से उड़ता रहेगा
हमारी सहमतियों का धुवां
जबकि पड़ी रहेंगी
उपेक्षित सी असहमतियां
शीशे के उन गिलासों में जिनमें भरी जानी है अभी
गर्म खौलती चाय
नए लोगों के लिए
फिर वह भी छोड़ जायेंगे अपनी असहमतियों को
उपेक्षित सा
किसी गिलास के तल में
उपेक्षित सा ही क्यों रहता है
हमारी असहमतियों का संसार
कभी सोचा !
***
पहाड़ पर पगडण्डी
जब घिरता है चौमास
छीज जाता है मडुवा1 का आटा
मसाले विसोटे2 पे पनियाने लगते है
सिलाप3 से भर जाता है
गेहूं का भकार4
इसी तरह
पसरता है झड़5
रिसने लगती है पाख6
सड़ने लगती है मोल7 की लकड़ी
धीरे धीरे टपकता रहता है आसमान
पाख के सूराख से
पीतल की परात पर
और बजता रहता है पानी आंख का कानों पर
अलौटे 8 लकड़ी से निकलता रहता है धुंवा आसमान की तरफ
धरती वालों के प्यार की तरह
और एक दिन
वे बना लेते हैं
आंखिर पहाड़ पर पगडण्डी
और चड़ जाते हैं
दरकते पहाड़ों के सीने में
अपनी भेड़ों और देवताओं समेत
नयी फसल बोने !
1-एक मोटा अनाज 2- लकड़ी का मसाले रखने वाला वर्तन 3- सीलन 4- अनाज रखने का वर्तन 5 –लगातार पढने वाली वारिस 6- छत 7- दरवाजे का फर्मा 8 मोटा बिना छिली हुई लक्कड़
***
नर्म चीज़ाें के नाम
(दिसम्बर की किसी शाम माल रोड नैनीताल में घूमते हुए)
एक दिन जब बहुत मीठी ठंड
चुभेगी गालों पर उस वक्त नर्म हथेलियों पर रिश्तों का एक गर्म मौसम साँस ले ही रहा होगा ।
मैं जानता हूँ कुछ चीजे़ं कभी नहीं बदलती कुछ मौसम नहीं जाते जीवन से बाहर
मैं जानता हूँ कुछ चीजे़ं बदल जाने का सिर्फ रचती है ढोंग कुछ चीजे़ं बहुत नर्म होने के बावजूद भी हमेशा दिखती रहती है बहुत कठोर चट्टान की तरह जैसे की पहाड़ ।
सबसे नर्म चीज़ ही होती सबसे कठोर आवरण में क्योंकि सबसे स्वादिष्ट चीजों को बसना होता है पहाड़ों के पार अपने एकांत में सबसे नर्म चीज ही खिलती है अक्सर बीहड़ों में ज्वालामुखी के फूल सी।
सबसे नर्म चीज़ अक्सर खो जाती है अक्सर गुमा देते है हम उसे कंचे खेलते नादान बच्चों की तरह या कि रख भूल आते हैं उम्र के किसी मोड़ ।
फिर ढूंढते रहते है चारपाईयों के नीचे टेबल दराज़ों में तकियों के नीचे कभी कभी एकांत के कोने छान डालते है अपने बटुवे को कई बार देखते है यहाँ तक कि अपने चहरे को भी एक खोजी की तरह खोजते है वक़्त की नदी बहे आदमी बनकर।
इस तरह एक दिन खुद के भीतर सब कुछ कितना कुछ घट जाता है नर्म चीजे़ं कितनी ही बार हमारे कलेजे से मुंह तक आती-आती फिर वापस हो जाती है आखिर में एक दिन हम हम समझ पाते है नर्म चीजे़ं क्यों होती है हमसे दूर ।
एक दिन हम एक आवरण के भीतर कठोर होने का रचने लगते है ढोंग
या कभी-कभी नहीं समझ पाने के विकल्प पर एक काला गोला लगाकर हम लिजलिजे घोंघे से दुबके रहते है सीलन भरी दीवारों में
आहिस्ता आहिस्ता सरकते हुए !
***( साभार:- अनुनादमा प्रकाशित अनिल कार्की की नई कबितायें )