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Saturday, June 6, 2020

झुुसिया दमाइ

झूसिया दमाई : कालीतट की भारतीय और नेपाली साझी संस्कृति की मौखिक परम्परा की जीवंत कड़ी

झूसिया दमाई : कालीतट की भारतीय और नेपाली साझी संस्कृति की मौखिक परम्परा की जीवंत कड़ी
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बस्कोट (नेपाल) में जन्मे झूसिया दमाई (जन्म: 1910, मृत्युः 16 नवम्बर 2005) जितने नेपाल के थे उतने ही भारत के भी और जितने भारत में फैले हैं उतने ही नेपाल में भी. उनकी रिश्तेदारी, जाति-बिरादरी दोनों देशों में समान रूप से है. स्वयं उनके कुछ विवाह भारत में हुये तो कुछ नेपाल में. उनके कुछ ‘गुसाँई’ भारत में हैं तो कुछ नेपाल में. उनकी कुछ जमीन नेपाल में हैं तो कुछ भारत में. वह रणसैनी मन्दिर (नेपाल) के खानदानी दमुवाँ-वादक और वीरगाथा- गायक थे तो ढूंगातोली (भारत) में वह मन्दिर में जाकर ‘द्योल’ (नौबत) बजाते, चैत के महीने में घर-घर जाकर ऋतुरैण गाते/सुनाते थे-
जो भागी जी रौलो सो ऋतु सुणलो.
जो पापी बड़न्छ कहाँ ई सुणन्छ रीत्यो.
द्विय दिन का ज्यूना म भलो नै बोलनू,
गिड़ला ऊँछी पलती भड़ पाय बिन्दी की बिनती,
कै भाँती करी हालछा साबा सर्द की.

(Jhusia Damai Folk Music artiste Uttarakhand)
(इस ऋतु में मैं हर वर्ष यह कथा तुम्हें सुनाऊँगा. कि भाग्यवान, पुण्यवान लोग इसे सुनेंगे. इस दो दिन की जिन्दगी में बोल-वचन ही तो रह जाते हैं आदमी के.)
यद्यपि झूसिया की बोली प्रचलित कुमाउँनी से कुछ भिन्न है. इस पर भी जब वह गाते थे तो शब्दों का संगीतमय तथा लयात्मक उच्चारण जटिलता को और बढ़ा देता था. किन्तु जब हम थोड़ा-सा गौर से उनकी मौखिक परम्परा को समझने की कोशिश करते हैं, उसे तत्कालीन ऐतिहासिक सामाजिक संदर्भों से जोड़ते हैं, तो झूसिया धीरे-धीरे समझ में आने लगते हैं.
Jhusia Damai Folk Music artiste Uttarakhand
रणसैनी नेपाल में वीरगाथा गाते झूसिया
दरअसल ‘लोक-थात’ की मौखिक परम्परा में वीरगाथा गायन ‘झूसिया’ का खानदानी पेशा था. सामान्यतया ‘ऋतुरैण’, जो कि भाई बहिन के स्नेहिल और वेदनापूर्ण उदास कथानक पर आधारित है और जिसे सुनकर आज भी माँ-बहिनें अनायास ही रुआंसी हो उठती हैं या रो पड़ती हैं- ऐसे कथानक भी ‘झूसिया’ वीरगाथा के अंदाज में ही गाते-सुनाते थे. इसलिये ‘झूसिया’ वीरगाथा गायक थे. वह जो कुछ गाते थे, उसे उन्होंने अपने पूर्वजों से सीखा था. उनके पिता ‘रनुवां दमाई’ और उनके अन्य पूर्वज भी गाथा-गायन, दमुवाँ-वादन ही किया करते थे. झूसिया की दोनों पत्नियाँ ‘सरस्वती’ और ‘हजारी’ उनके साथ ‘ह्योव’ भरतीं ‘भाग’ लगाती थीं. अभिप्राय यह कि झूसिया जो कुछ गाते थे वह उनकी परम्परा-परिपाटी रही. इसलिये उसमें तत्कालीन कुमाऊँ और नेपाल का सम्मिलित इतिहास, भूगोल, समाज व्यवस्था, आर्थिक-राजनैतिक दशा, धार्मिक- सांस्कृतिक मान्यताएँ सभी कुछ सन्निहित है.
बस्कोट, रणसैनी, पुजारागाँव-झूसिया जहाँ जन्मे, पले और बड़े हुये तक पहुँचने के लिये पिथौरागढ़ से जाना होता है झूलाघाट. फिर सीधी चढ़ाई (पैदल मार्ग) पहुँचाती है रणसैनी के पास कच्चे मोटर मार्ग में. जिस पर अभी जीपें ही चलती हैं. बैतड़ी से नेपाल के अन्य स्थानों के लिये ‘गोठलापानी’ से बसें मिलती हैं. ‘गोठलापानी’ की चोटी पर है ‘गढ़ी’. पश्चिमी नेपाल का यह क्षेत्र नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री लोक बहादुर चंद का भी इलाका है. यहीं जन्मे थे राजशाही के खिलाफ लोकतंत्र के समर्थक शहीद दशरथ चंद और यहीं जन्मे इन ‘चन्दों’ की, इनके पूर्वजों की वंशावली जानने-सुनाने वाले झूसिया दमाई.
यहीं पर मैं याद करना चाहता हूँ ‘झूसिया’ के बड़े बेटे चक्रराम दमाई को जो गीत और नाटक प्रभाग नैनीताल में कलाकार थे और जिन्हें ‘झूसिया’ के साथ गाते-बजाते-नाचते हमने देखा-सुना है. चक्रराम दमाई कई अर्थों में ‘झूसिया’ के टक्कर के ही नहीं बल्कि उनसे आगे के थे- खास तौर पर ढोल वादन में. दुर्भाग्यवश वह पहले ही चल दिये.
(Jhusia Damai Folk Music artiste Uttarakhand)
हाँ, तो हम फिर आ जाते हैं ‘झूसिया’ पर. झूसिया माने-सामन्ती मानसिकता लिये वर्तमान के द्वंद्वों को बड़ी सहनशीलता और चातुर्य के साथ समरस करने वाला एक गपोड़’ व्यक्ति. ‘नोटों’ और विक्टोरियाई रुपयों की खन-खन से औरत खरीदने वाला व्यक्ति. एक मछली कम हो जाने पर या मछली खा लेने पर, औरत को घर से निकाल देने वाला व्यक्ति. और अपने जीवन की इन घटनाओं को गर्व से सुनाने वाला व्यक्ति. जीवन में पाँच शादियाँ करने वाला व्यक्ति, दो पत्नियों में बड़ी सहजता से सामंजस्य बिठाये रखने वाला व्यक्ति.
Jhusia Damai Folk Music artiste Uttarakhand
और इन सबके साथ-साथ कालीतट की भारतीय और नेपाली साझी संस्कृति की मौखिक परम्परा की महत्वपूर्ण और जीवंत कड़ी बन जाने वाला व्यक्ति. कहने का मतलब एक इतिहास थे झूसिया दमाई जिसमें उनकी ‘जग-सुनी’ भी है और ‘आप-बीती’ भी. बड़ी कुशलता के साथ ‘जग-बीती’ में ‘आप-बीती’ जोड़ देते थे वह
गंगा बीच छाड़ि गे छै, न वार नै पार
तेरा पीछा लागी रयूँ,
हाँ ऽऽ बयासी साल में तुमार शरण में आयूँ राजा,
है ऽ राजा उ ऽ ता ऽ रिऽ ये पार हा ऽऽ आ ऽऽ
(बीच गंगा-धार में छूटा हुआ बेसहारा मैं, तुम्हारा सहारा पा रहा हूँ अब- बयासी वर्ष की उम्र में. सो हे मित्रो! पार लगा देना मेरी नय्या.)
यह ‘संग्राम कार्की’ वीरगाथा में गाया गया ‘बैर’ का टुकड़ा है. जिसमें झूसिया अपना दुख, अपनी बात कह गये हैं. वीरगाथा में वर्तमान को जोड़ गये हैं. वर्तमान को जोड़ने का यह क्रम झूसिया में ही नहीं सभी ‘असल’ लोक-गायकों में अकसर मिलता ही है. और यही रचनात्मकता किसी भी लोकगायक को अपने समय का लोक नायक’ बनाने में महत्वपूर्ण कारक बनती है. हमारे समय के अन्य लोकगायकों-गोपीदास, जोगाराम, मोहन सिंह रीठागाड़ी- सभी में यह गुण मौजूद था.  
यहाँ पर प्रसंगवश यह बात कही जानी चाहिए कि जीवन तो सदा प्रवहमान है ही लेकिन उसकी ‘लोकथात’ के प्रवाह को बनाये रखने में उसे अभिव्यक्ति देने वाले लोककलाकार मुख्य भूमिका निभाते हैं. वेदपाठी और ‘लोक-कण्ठी’ में एक अन्तर यह भी है. लोक कलाकारों के इसी महत्वपूर्ण योगदान के कारण ही लोक की मौखिक परम्परा सदा प्रवहमान, गतिशील और जीवंत रहती है. किसी भी लोककलाकार का योगदान यही होता है कि वह अपनी रचनात्मकता उस ‘लोकथात’ में जोड़ देता है जो उसे पीढ़ी दर पीढ़ी से मिली होती है
गढ़ चम्पावत को दरबार म
बड़ी राजा ईजड़, का पाठ बीजड़
का पाठ कलिश, का पाठ गुणापिङा….
(गढ़ चम्पावत में- बड़े राजा ईजड़, ईजड़ के पुत्र बीजड़, बीजड़ के कलिष, कलिष के गुणापिङा….)
झूसिया दमाई मूलत: वीरगाथा-गायक थे. ‘संग्राम-कार्की’ उनकी प्रिय वीरगाथा है. झूसिया इसे जहाँ से चाहें शुरू कर सकते थे, जहाँ से चाहें समेट सकते थे. संग्राम-गाथा झूसिया की जेब में समझिये. संभवत: यही कारण है कि लोक की मौखिक परम्परा की जितनी भी शैलियाँ झूसिया के पास थीं, लोकाभिव्यक्ति की जो बहुरंगी अभिव्यंजना और स्पष्टता उनके पास थी, सौन्दर्यबोध की जो गहराई थी, मुहावरों और ध्वनि बिम्बों का जो खजाना था, लोकसंगीत-लोक लयकारी की जो विविधता थी, उन सबका सर्वाधिक प्रयोग झूसिया इस गाथा को गाने-सुनाने में करते थे.
झूसिया का संग्राम कार्की सुन लिया तो शिल्प (फॉर्म) के स्तर पर समझिये झूसिया पूरे सुन और देख लिये. ‘देख लिये’ इसलिए कि झूसिया वीरगाथा सिर्फ सुनाते नहीं बल्कि सुनाने के साथ-साथ उसकी नृत्यात्मक अभिनयात्मक अभिव्यक्ति भी करते थे.
वीरगाथा-गायन में उनके इतना चर्चित होने का एक मुख्य कारण उनकी अभिनयात्मक-नृत्यात्मक अभिव्यक्ति भी है, जो उन्हें छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध पण्डवानी गायिका तीजनबाई के नजदीक ले जाती है. झूसिया दमाई को देखकर तीजनबाई और तीजनबाई को देखकर झूसिया दमाई बरबस याद आ जाते हैं. कथा-बखानी में, बात को समझाने में, कथा आगे बढ़ाने में ‘तीजन’ का शिल्प जिस तरह उनकी मदद करता है, कथा-गायन की एकरसता तोड़ता है- बिलकुल वही बात, वही तेवर झूसिया में देखने को मिलते थे. बल्कि तीजन से झूसिया एक कदम आगे ठहरते हैं अपने हुड़का-वादन के कारण. यहाँ पर मैं झूसिया को तीजन से महान साबित नहीं कर रहा हूँ, यह न मेरा उद्देश्य है और न वास्तविकता. मैं बस अपनी बात को समझाने के लिए तीजन का सहारा भर ले रहा हूँ. यह सच्चाई है कि नाचते-नाचते हुड़का बजाना, उस पर लयकारी दिखाना, ताल से खेलना अद्भुत होता था झूसिया का.
(Jhusia Damai Folk Music artiste Uttarakhand)
गाथा-गायन प्रस्तुत करते समय ‘झूसिया’ की एक निश्चित वेष-भूषा होती थी- रंग-बिरंगा घेरदार पेटीकोट नुमा झगुला, कुर्ता, वास्कट, पगड़ी, कमर में फेटा और हुड़के में बँधी चँवर गाय के पूँछ की लटी, जो उनकी पीठ पर नृत्य के साथ अद्भुत गति से डोलती रहती थी. उनका ‘हुड़का’ भी सामान्य हुड़का नहीं था, उसमें अपेक्षाकृत भारी-भारी घाँट-घण्टियाँ लगी थीं, जो उन्हें अलग-अलग मन्दिरों से सम्मान के तौर पर मिली थीं. हुड़के के इसी वजन के कारण वह हुड़के को कंधे में डालने के साथ-साथ उसक एक ‘ताँणा’ (डोरी-संतुलित करने के लिये) कमर में भी बाँधते थे, जो सिर्फ उनकी ही विशेषता थी. अपनी उक्त वेश-भूषा में सज-सँवर कर नृत्य के साथ गाथा गायन करते हुए ‘झूसिया’ कथा के सूत्रधार होते थे और पात्र भी, गायक होते थे और वादक-नर्तक भी. बिना वेश-भूषा के अपने गायन को तो वह कार्यक्रम ही नहीं मानते थे.
एक साक्षात्कार में उन्होंने अपने आकाशवाणी कार्यक्रमों के संदर्भ में कहा है-‘खाली ‘ट्यैस्ट’ होता है वहाँ आवाज का, बंद कमरे में, और सिर्फ ढाई हजार रुपया मिलता है हमेशा. कोई प्रोग्राम नहीं होता वहाँ.’ मतलब स्टूडियो रिकार्डिंग कोई कार्यक्रम नहीं था उनकी नजर में.
(Jhusia Damai Folk Music artiste Uttarakhand)
गिरीश चन्द्र तिवारी ‘गिर्दा’ का यह लेख पहाड़ पत्रिका के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक में छपा है. काफल ट्री ने पहाड़ पत्रिका के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक से यह लेख साभार लिया है.

Friday, August 10, 2018

ब्राह्मण बंशावली ( सरयुपारीण / कान्यकुब्ज शाखाा )



( यो बंसावली लब तिवारीको ब्लग luvtiwari.blogspot.com बाट साभार उदधृत गरिएकोछ । )




सरयूपारीण ब्राह्मण या सरवरिया ब्राह्मण या सरयूपारी ब्राह्मण सरयू नदी के पूर्वी तरफ बसे हुए ब्राह्मणों को कहा जाता है। यह कान्यकुब्ज ब्राह्मणो कि शाखा है। श्रीराम ने लंका विजय के बाद कान्यकुब्ज ब्राह्मणों से यज्ञ करवाकर उन्हे सरयु पार स्थापित किया था। सरयु नदी को सरवार भी कहते थे। इसी से ये ब्राह्मण सरयुपारी ब्राह्मण कहलाते हैं। सरयुपारी ब्राह्मण पूर्वी उत्तरप्रदेश, उत्तरी मध्यप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में भी होते हैं। मुख्य सरवार क्षेत्र पश्चिम मे उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या शहर से लेकर पुर्व मे बिहार के छपरा तक तथा उत्तर मे सौनौली से लेकर दक्षिण मे मध्यप्रदेश के रींवा शहर तक है। काशी, प्रयाग, रीवा, बस्ती, गोरखपुर, अयोध्या, छपरा इत्यादि नगर सरवार भूखण्ड में हैं।
एक अन्य मत के अनुसार श्री राम ने कान्यकुब्जो को सरयु पार नहीं बसाया था बल्कि रावण जो की ब्राह्मण थे उनकी हत्या करने पर ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए जब श्री राम ने भोजन और दान के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित किया तो जो ब्राह्मण स्नान करने के बहाने से सरयू नदी पार करके उस पार चले गए और भोजन तथा दान सामंग्री ग्रहण नहीं की वे ब्राह्मण सरयुपारीन ब्राह्मण कहे गए।
सरयूपारीण ब्राहमणों के मुख्य गाँव :
गर्ग (शुक्ल- वंश)
गर्ग ऋषि के तेरह लडके बताये जाते है जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल बंशज  कहा जाता है जो तेरह गांवों में बिभक्त हों गये थे| गांवों के नाम कुछ इस प्रकार है|
(१) मामखोर (२) खखाइज खोर  (३) भेंडी  (४) बकरूआं  (५) अकोलियाँ  (६) भरवलियाँ  (७) कनइल (८) मोढीफेकरा (९) मल्हीयन (१०) महसों (११) महुलियार (१२) बुद्धहट (१३) इसमे चार  गाँव का नाम आता है लखनौरा, मुंजीयड, भांदी, और नौवागाँव| ये सारे गाँव लगभग गोरखपुर, देवरियां और बस्ती में आज भी पाए जाते हैं|
उपगर्ग (शुक्ल-वंश)
उपगर्ग के छ: गाँव जो गर्ग ऋषि के अनुकरणीय थे कुछ इस प्रकार से हैं|
बरवां (२) चांदां (३) पिछौरां (४) कड़जहीं (५) सेदापार (६) दिक्षापार
यही मूलत: गाँव है जहाँ से शुक्ल बंश का उदय माना जाता है यहीं से लोग अन्यत्र भी जाकर शुक्ल     बंश का उत्थान कर रहें हैं यें सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं|
गौतम (मिश्र-वंश)
गौतम ऋषि के छ: पुत्र बताये जातें हैं जो इन छ: गांवों के वाशी थे|
(१) चंचाई (२) मधुबनी (३) चंपा (४) चंपारण (५) विडरा (६) भटीयारी
इन्ही छ: गांवों से गौतम गोत्रीय, त्रिप्रवरीय मिश्र वंश का उदय हुआ है, यहीं से अन्यत्र भी पलायन हुआ है ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं|
उप गौतम (मिश्र-वंश)
उप गौतम यानि गौतम के अनुकारक छ: गाँव इस प्रकार से हैं|
(१)  कालीडीहा (२) बहुडीह (३) वालेडीहा (४) भभयां (५) पतनाड़े  (६) कपीसा
इन गांवों से उप गौतम की उत्पत्ति  मानी जाति है|
वत्स गोत्र  ( मिश्र- वंश)
वत्स ऋषि के नौ पुत्र माने जाते हैं जो इन नौ गांवों में निवास करते थे|
(१) गाना (२) पयासी (३) हरियैया (४) नगहरा (५) अघइला (६) सेखुई (७) पीडहरा (८) राढ़ी (९) मकहडा
बताया जाता है की इनके वहा पांति का प्रचलन था अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है|
कौशिक गोत्र  (मिश्र-वंश)
तीन गांवों से इनकी उत्पत्ति बताई जाती है जो निम्न है|
(१) धर्मपुरा (२) सोगावरी (३) देशी
बशिष्ट गोत्र (मिश्र-वंश)
इनका निवास भी इन तीन गांवों में बताई जाती है|
(१) बट्टूपुर  मार्जनी (२) बढ़निया (३) खउसी
शांडिल्य गोत्र ( तिवारी,त्रिपाठी वंश)
शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताये जाते हैं जो इन बाह गांवों से प्रभुत्व रखते हैं|
(१) सांडी (२) सोहगौरा (३) संरयाँ  (४) श्रीजन (५) धतूरा (६) भगराइच (७) बलूआ (८) हरदी (९) झूडीयाँ (१०) उनवलियाँ (११) लोनापार (१२) कटियारी, लोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित है 
इन्ही बारह गांवों से आज चारों तरफ इनका विकास हुआ है, यें सरयूपारीण ब्राह्मण हैं| इनका गोत्र श्री मुख शांडिल्य त्रि प्रवर है, श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है जिसमे  राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ घराना, मणी घराना है, इन चारों का उदय, सोहगौरा गोरखपुर से है जहाँ आज भी इन चारों का अस्तित्व कायम है|
उप शांडिल्य ( तिवारी- त्रिपाठी, वंश)
इनके छ: गाँव बताये जाते हैं जी निम्नवत हैं|
(१) शीशवाँ (२) चौरीहाँ (३) चनरवटा (४) जोजिया (५) ढकरा (६) क़जरवटा
भार्गव गोत्र (तिवारी  या त्रिपाठी वंश)
भार्गव ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिसमें  चार गांवों का उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार है|
(१) सिंघनजोड़ी (२) सोताचक  (३) चेतियाँ  (४) मदनपुर
भारद्वाज गोत्र (दुबे वंश)
भारद्वाज ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिनकी उत्पत्ति इन चार गांवों से बताई जाती है|
(१) बड़गईयाँ (२) सरार (३) परहूँआ (४) गरयापार
कन्चनियाँ और लाठीयारी इन दो गांवों में दुबे घराना बताया जाता है जो वास्तव में गौतम मिश्र हैं लेकिन  इनके पिता क्रमश: उठातमनी और शंखमनी गौतम मिश्र थे परन्तु वासी (बस्ती) के राजा  बोधमल ने एक पोखरा खुदवाया जिसमे लट्ठा न चल पाया, राजा के कहने पर दोनों भाई मिल कर लट्ठे को चलाया जिसमे एक ने लट्ठे सोने वाला भाग पकड़ा तो दुसरें ने लाठी वाला भाग पकड़ा जिसमे कन्चनियाँ व लाठियारी का नाम पड़ा, दुबे की गददी होने से ये लोग दुबे कहलाने लगें|
सरार के दुबे के वहां पांति का प्रचलन रहा है अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है|
सावरण गोत्र ( पाण्डेय वंश)
सावरण ऋषि के तीन पुत्र बताये जाते हैं इनके वहां भी पांति का प्रचलन रहा है जिन्हें तीन के समकक्ष माना जाता है जिनके तीन गाँव निम्न हैं|
(१) इन्द्रपुर (२) दिलीपपुर (३) रकहट (चमरूपट्टी)
सांकेत गोत्र (मलांव के पाण्डेय वंश)
सांकेत ऋषि के तीन पुत्र इन तीन गांवों से सम्बन्धित बताये जाते हैं|
(१) मलांव (२) नचइयाँ (३) चकसनियाँ
कश्यप गोत्र (त्रिफला के पाण्डेय वंश)
इन तीन गांवों से बताये जाते हैं|
(१) त्रिफला (२) मढ़रियाँ  (३) ढडमढीयाँ
ओझा वंश
इन तीन गांवों से बताये जाते हैं|
(१) करइली (२) खैरी (३) निपनियां
चौबे -चतुर्वेदी, वंश (कश्यप गोत्र)
इनके लिए तीन गांवों का उल्लेख मिलता है|
(१) वंदनडीह (२) बलूआ (३) बेलउजां
एक गाँव कुसहाँ का उल्लेख बताते है जो शायद उपाध्याय वंश का मालूम पड़ता है|
ब्राह्मणों की वंशावली
भविष्य पुराण के अनुसार ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से
दोनों कुरुक्षेत्र वासनी
सरस्वती नदी के तट
पर गये और कण् व चतुर्वेदमय
सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे
एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें
वरदान दिया ।
वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका
क्रमानुसार नाम था -
उपाध्याय,
दीक्षित,
पाठक,
शुक्ला,
मिश्रा,
अग्निहोत्री,
दुबे,
तिवारी,
पाण्डेय,
और
चतुर्वेदी ।
इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदा देवी ने
अपनी कन्याए प्रदान की।
वे क्रमशः
उपाध्यायी,
दीक्षिता,
पाठकी,
शुक्लिका,
मिश्राणी,
अग्निहोत्रिधी,
द्विवेदिनी,
तिवेदिनी
पाण्ड्यायनी,
और
चतुर्वेदिनी कहलायीं।
फिर उन कन्याआं के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं
वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम -
कष्यप,
भरद्वाज,
विश्वामित्र,
गौतम,
जमदग्रि,
वसिष्ठ,
वत्स,
गौतम,
पराशर,
गर्ग,
अत्रि,
भृगडत्र,
अंगिरा,
श्रंगी,
कात्याय,
और
याज्ञवल्क्य।
इन नामो से सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं।
मुख्य 10 प्रकार ब्राम्हणों ये हैं-
(1) तैलंगा,
(2) महार्राष्ट्रा,
(3) गुर्जर,
(4) द्रविड,
(5) कर्णटिका,
यह पांच "द्रविण" कहे जाते हैं, ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाये जाते हैं|
तथा
विंध्यांचल के उत्तर में पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राम्हण
(1) सारस्वत,
(2) कान्यकुब्ज,
(3) गौड़,
(4) मैथिल,
(5) उत्कलये,
उत्तर के पंच गौड़ कहे जाते हैं।
वैसे ब्राम्हण अनेक हैं जिनका वर्णन आगे लिखा है।
ऐसी संख्या मुख्य 115 की है।
शाखा भेद अनेक हैं । इनके अलावा संकर जाति ब्राम्हण अनेक है ।
यहां मिली जुली उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हणों की नामावली 115 की दे रहा हूं।
जो एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं,
फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हण की संख्या शाखा भेद से 230 के
लगभग है |
तथा और भी शाखा भेद हुए हैं, जो लगभग 300 के करीब ब्राम्हण भेदों की संख्या का लेखा पाया गया है।
उत्तर व दक्षिणी ब्राम्हणां के भेद इस प्रकार है
81 ब्राम्हाणां की 31 शाखा कुल 115 ब्राम्हण संख्या, मुख्य है -
(1) गौड़ ब्राम्हण,
(2)गुजरगौड़ ब्राम्हण (मारवाड,मालवा)
(3) श्री गौड़ ब्राम्हण,
(4) गंगापुत्र गौडत्र ब्राम्हण,
(5) हरियाणा गौड़ ब्राम्हण,
(6) वशिष्ठ गौड़ ब्राम्हण,
(7) शोरथ गौड ब्राम्हण,
(8) दालभ्य गौड़ ब्राम्हण,
(9) सुखसेन गौड़ ब्राम्हण,
(10) भटनागर गौड़ ब्राम्हण,
(11) सूरजध्वज गौड ब्राम्हण(षोभर),
(12) मथुरा के चौबे ब्राम्हण,
(13) वाल्मीकि ब्राम्हण,
(14) रायकवाल ब्राम्हण,
(15) गोमित्र ब्राम्हण,
(16) दायमा ब्राम्हण,
(17) सारस्वत ब्राम्हण,
(18) मैथल ब्राम्हण,
(19) कान्यकुब्ज ब्राम्हण,
(20) उत्कल ब्राम्हण,
(21) सरवरिया ब्राम्हण,
(22) पराशर ब्राम्हण,
(23) सनोडिया या सनाड्य,
(24)मित्र गौड़ ब्राम्हण,
(25) कपिल ब्राम्हण,
(26) तलाजिये ब्राम्हण,
(27) खेटुवे ब्राम्हण,
(28) नारदी ब्राम्हण,
(29) चन्द्रसर ब्राम्हण,
(30)वलादरे ब्राम्हण,
(31) गयावाल ब्राम्हण,
(32) ओडये ब्राम्हण,
(33) आभीर ब्राम्हण,
(34) पल्लीवास ब्राम्हण,
(35) लेटवास ब्राम्हण,
(36) सोमपुरा ब्राम्हण,
(37) काबोद सिद्धि ब्राम्हण,
(38) नदोर्या ब्राम्हण,
(39) भारती ब्राम्हण,
(40) पुश्करर्णी ब्राम्हण,
(41) गरुड़ गलिया ब्राम्हण,
(42) भार्गव ब्राम्हण,
(43) नार्मदीय ब्राम्हण,
(44) नन्दवाण ब्राम्हण,
(45) मैत्रयणी ब्राम्हण,
(46) अभिल्ल ब्राम्हण,
(47) मध्यान्दिनीय ब्राम्हण,
(48) टोलक ब्राम्हण,
(49) श्रीमाली ब्राम्हण,
(50) पोरवाल बनिये ब्राम्हण,
(51) श्रीमाली वैष्य ब्राम्हण
(52) तांगड़ ब्राम्हण,
(53) सिंध ब्राम्हण,
(54) त्रिवेदी म्होड ब्राम्हण,
(55) इग्यर्शण ब्राम्हण,
(56) धनोजा म्होड ब्राम्हण,
(57) गौभुज ब्राम्हण,
(58) अट्टालजर ब्राम्हण,
(59) मधुकर ब्राम्हण,
(60) मंडलपुरवासी ब्राम्हण,
(61) खड़ायते ब्राम्हण,
(62) बाजरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
(63) भीतरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
(64) लाढवनिये ब्राम्हण,
(65) झारोला ब्राम्हण,
(66) अंतरदेवी ब्राम्हण,
(67) गालव ब्राम्हण,
(68) गिरनारे ब्राम्हण
सभी ब्राह्मण बंधुओ को मेरा नमस्कार बहुत दुर्लभ जानकारी है जरूर पढ़े। और समाज में शेयर करे हम क्या है
इस तरह ब्राह्मणों की उत्पत्ति और इतिहास के साथ इनका विस्तार अलग अलग राज्यो में हुआ और ये उस राज्य के ब्राह्मण कहलाये।
ब्राह्मण बिना धरती की कल्पना ही नहीं की जा सकती इसलिए ब्राह्मण होने पर गर्व करो और अपने कर्म और धर्म का पालन कर सनातन संस्कृति की रक्षा करें।
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नोट:आप सभी बंधुओं से अनुरोध है कि सभी ब्राह्मणों को भेजें और यथासम्भव अपनी वंशावली का प्रसार करने में सहयोग करें

Friday, August 3, 2018

सिरी उपमा जोग ( कहानी)


सिरी उपमा जोग

( कहानी )

लेखक--शिवमूर्ति 

साभार- शब्दाङ्कन






किर्र-किर्र-किर्र घंटी बजती है।

एक आदमी पर्दा उठाकर कमरे से बाहर निकलता है। अर्दली बाहर प्रतीक्षारत लोगों में से एक आदमी को इशारा करता है। वह आदमी जल्दी-जल्दी अंदर जाता है।

सबेरे आठ बजे से यही क्रम जारी है। अभी दस बजे ए. डी. एम. साहब को दौरे पर भी जाना है, लेकिन भीड़ है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही। किसी की खेत की समस्या है तो किसी की सीमेंट की। किसी की चीनी की, तो किसी की लाइसेंस की। समस्याएँ ही समस्याएँ।

पौने दस बजे एक लम्बी घंटी बजती है। प्रत्युत्तर में अर्दली भागा-भागा भीतर जाता है।

''कितने मुलाकाती हैं अभी?''

''हुजूर, सात-आठ होंगे''

''सबको एक साथ भेज दो।''

अगले क्षण कर्इ लोगों का झुंड अंदर घुसता है, लेकिन दस-ग्यारह साल का एक लड़का अभी भी बाहर बरामदे में खड़ा है। अर्दली झुँझलाता है, ''जा-जा तू भी जा।''

''मुझे अकेले में मिला दो,'' लड़का फिर मिनमिनाता है।

इस बार अर्दली भड़क जाता है, ''आखिर ऐसा क्या है, जो तू सबेरे से अकेले-अकेले की रट लगा रहा है। क्या है इस चिट्टी में, बोल तो, क्या चाहिए-चीनी, सीमेंट, मिट्टी का तेल?''

लड़का चुप रह जाता है। चिट्ठी वापस जेब में डाल लेता है।

अर्दली लड़के को ध्यान से देख रहा है। मटमैली-सी सूती कमीज और पायजामा, गले में लाल रंग का गमछा, छोटे-कडे़-खडे़-रूखे बाल, नंगे पाँव। धूल-धूसरित चेहरा, मुरझाया हुआ। अपरिचित माहौल में किंचित सम्भ्रमित, अविश्वासी और कठोर। दूर देहात से आया हुआ लगता है।

कुछ सोचकर अर्दली आश्वासन देता है, ''अच्छा, इस बार तू अकेले में मिल ले।'' लेकिन जब तक अंदर के लोग बाहर आएँ, साहब ऑफिस-रूम से बेड-रूम में चले जाते हैं।

ड्राइवर आकर जीप पोंछने लगता है। फिर इंजन स्टार्ट करके पानी डालता है। लड़का जीप के आगे-पीछे हो रहा है।

थोड़ी देर में अर्दली निकलता है। साहब की मैगजीन, रूल, पान का डिब्बा, सिगरेट का पैकेट और माचिस लेकर। फिर निकलते हैं साहब, धूप-छाँही चश्मा लगाए। चेहरे पर आभिजात्य और गम्भीरता ओढे़ हुए।

लड़के पर नजर पड़ते ही पूछते हैं, ''हाँ, बोलो बेटे, कैसे?''

लड़का सहसा कुछ बोल नहीं पा रहा है। वह सम्भ्रम नमस्कार करता है।

''ठीक है, ठीक है।'' साहब जीप में बैठते हुए पूछते हैं, ''काम बोलो अपना, जल्दी, क्या चाहिए?''

अर्दली बोलता है, ''हुजूर, मैंने लाख पूछा कि क्या काम है, बताता ही नहीं। कहता है, साहब से अकेले में बताना है।''

''अकेले में बताना है तो कल मिलना, कल।''

जीप रेंगने लगती है। लड़का एक क्षण असमंजस में रहता है फिर जीप के बगल में दौड़ते हुए जेब से एक चिट्ठी निकालकर साहब की गोद में फेंक देता है।

''ठीक है, बाद में मिलना'', साहब एक चालू आश्वासन देते हैं। तब तक लड़का पीछे छूट जाता है। लेकिन चिट्ठी की गँवारू शक्ल उनकी उत्सुकता बढ़ा देती है। उसे आटे की लेर्इ से चिपकाया गया है।

चिट्ठी खोलकर वे पढ़ना शुरू करते हैं- 'सरब सिरी उपमा जोग, खत लिखा लालू की मार्इ की तरफ से, लालू के बप्पा को पाँव छूना पहुँचे...''

अचानक जैसे करेंट लग जाता है उनको। लालू की मार्इ की चिट्ठी! इतने दिनों बाद। पसीना चुहचुहा आया है उनके माथे पर। सन्न!

बड़ी देर बाद प्रकृतिस्थ होते हैं वे। तिरछी आँखों और बैक मिरर से देखते हैं- ड्राइवर निर्विकार जीप चलाए जा रहा है। अर्दली ऊँघते हुए झूलने लगा है।

वे फिर चिट्ठी खोलते हैं-''आगे समाचार मालूम हो कि हम लोग यहाँ पर राजी-खुशी से हैं और आपकी राजी-खुशी भगवान से नेक मनाया करते हैं। आगे, लालू के बप्पा को मालूम हो कि हम अपनी याद दिलाकर आपको दुखी नहीं करना चाहते, लेकिन कुछ ऐसी मुसीबत आ गर्इ है कि लालू को आपके पास भेजना जरूरी हो गया है। लालू दस महीने का था, तब आप आखिरी बार गाँव आए थे। उस बात को दस साल होने जा रहे हैं। इधर दो-तीन साल से आपके चाचाजी ने हम लोगों को सताना शुरू कर दिया है। किसी न किसी बहाने से हमको, लालू को और कभी-कभी कमला को भी मारते-पीटते रहते हैं। जानते हैं कि आपने हम लोगों को छोड़ दिया है, इसलिए गाँव भर में कहते हैं कि 'लालू' आपका बेटा नहीं है।

वे चाहते हैं कि हम लोग गाँव छोड़कर भाग जाएँ तो सारी खेती-बारी, घर दुवार पर उनका कब्जा हो जाय। आज आठ दिन हुए, आपके चाचाजी हमें बड़ी मार मारे। मेरा एक दाँत टूट गया। हाथ-पाँव सूज गए हैं। कहते हैं- गाँव छोड़कर भाग जाओ, नहीं तो महतारी-बेटे का मूँड़ काट लेंगे। अपने हिस्से का महुए का पेड़ वे जबरदस्ती कटवा लिये हैं। कमला अब सत्तरह वर्ष की हो गर्इ है। मैंने बहुत दौड़-धूप कर एक जगह उसकी शादी पक्की की है। अगर आपके चाचाजी मेरी झूठी बदनामी लड़के वालों तक पहुँचा देंगे तो मेरी बिटिया की शादी भी टूट जाएगी। इसलिए आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि एक बार घर आकर अपने चाचाजी को समझा दीजिए। नहीं तो लालू को एक चिट्ठी ही दे दीजिए, अपने चाचाजी के नाम। नहीं तो आपके आँख फेरने से तो हम भीगी बिलार बने ही हैं, अब यह गाँव-डीह भी छूट जाएगा। राम खेलावन मास्टर ने अखबार देखकर बताया था कि अब आप इस जिले में हैं। इसी जगह पर लालू को भेज रही हूँ।''

चिट्ठी पढ़कर वे लम्बी साँस लेते हैं। उन्हें याद आता है कि लड़का पीछे बंगले पर छूट गया है। कहीं किसी को अपना परिचय दे दिया तो? लेकिन अब इतनी दूर आ गए है कि वापस लौटना उचित नहीं लग रहा है। फिर वापस चलकर सबके सामने उससे बात भी तो नहीं की जा सकती है। उन्हें प्यास लग आर्इ है। ड्राइवर से कहते हैं, ''जीप रोकना, प्यास लगी है।'' पानी और चाय पीकर सिगरेट सुलगाया उन्होंने। तब धीरे-धीरे प्रकृतिस्थ हो रहे हैं। उनके मस्तिष्क में दस साल पुराना गाँव उभर रहा है। गाँव, जहाँ उनका प्रिय साथी था- महुए का पेड़, जो अब नहीं रहा। उसी की जड़ पर बैठकर सबेरे से शाम तक 'कम्पटीशन' की तैयारी करते थे वे। गाँव जहाँ उनकी उस समय की प्रिय बेटी कमला थी। जिसके लाल-लाल नरम होंठ कितने सुंदर लगते थे। महुए के पेड़ पर बैठकर कौआ जब 'काँ-काँ!' बोलता तो जमीन पर बैठी नन्ही कमला दुहराती- काँ ! काँ ! कौआ थक-हारकर उड़ जाता तो वह ताली पीटती थी। वह अब सयानी हो गर्इ है। उसकी शादी होने वाली हैं एक दिन हो भी जाएगी। विदा होते समय अपने छोटे भार्इ का पाँव पकड़कर रोएगी। बाप का पाँव नहीं रहेगा पकड़कर रोने के लिए। भार्इ आश्वासन देगा कंधा पकड़कर, आफत-बिपत में साथ देने का। बाप की शायद कोर्इ घुँधली-सी तस्वीर उभरे उसके दिमाग में।

फिर उनके दिमाग में पत्नी के टूटे दाँत वाला चेहरा घूम गया। दीनता की मूर्ति, अति परिश्रम-कुपोषण और पति की निष्ठुरता से कृश, सूखा शरीर, हाथ-पाँव सूजे हुए, मार से। बहुत गरीबी के दिन थे, जब उनका गौना हुआ था। इंटर पास किया था उस साल। लालू की मार्इ बलिष्ठ कद-काठी की हिम्मत और जीवट वाली महिला थी, निरक्षर लेकिन आशा और आत्मविश्वास की मूर्ति। उसे देखकर उनके मन में श्रद्धा होती थी उसके प्रति। इतनी आस्था हो जिंदगी और परिश्रम में तो संसार की कोर्इ भी वस्तु अलभ्य नहीं रह सकती। बी0 ए0 पास करते-करते कमला पैदा हो गर्इ थी। उसके बाद बेरोजगारी के वर्षो में लगातार हिम्मत बँधाती रहती थी। अपने गहने बेचकर प्रतियोगिता परीक्षा की फ़ीस और पुस्तकों की व्यवस्था की थी उसने। खेती-बारी का सारा काम अपने जिम्मे लेकर उन्हें परीक्षा की तैयारी के लिए मुक्त कर दिया था। रबी की सिंचार्इ के दिनों में सारे दिन बच्ची को पेड़ के नीचे लिटाकर कुएँ पर पुर हाँका करती थी। बाजार से हरी सब्जी खरीदना सम्भव नहीं था, लेकिन छप्पर पर चढ़ी हुर्इ नेनुआ की लताओं को वह अगहन-पूस तक बाल्टी भर-भर कर सींचती रहती थी, जिससे उन्हें हरी सब्जी मिलती रहे। रोज सबेरे ताजी रोटी बनाकर उन्हें खिला देती और खुद बासी खाकर लड़की को लेकर खेत पर चली जाती थी। एक बकरी लार्इ थी वह अपने मायके से, जिससे उन्हें सबेरे थोड़ा दूध या चाय मिल सके। रात को सोते समय पूछती, ''अभी कितनी किताब और पढ़ना बाकी है, साहबी वाली नौकरी पाने के लिए।''

वे उसके प्रश्न पर मुस्करा देते, ''कुछ कहा नहीं जा सकता। सारी किताबें पढ़ लेने के बाद भी जरूरी नहीं कि साहब बन ही जाएँ।''

ऐसा मत सोचा करिए,'' वह कहती, ''मेहनत करेंगे तो भगवान उसका फल जरूर देंगे।''

यह उसी के त्याग, तपस्या और आस्था का परिणाम था कि एक ही बार में उनका सेलेक्शन हो गया था। परिणाम निकला तो वे खुद आश्चर्यचकित थे। घर आकर एकांत में पत्नी को गले से लगा लिया था। वाणी अवरूद्ध हो गर्इ थी। उसको पता लगा तो वह बड़ी देर तक निस्पंद रोती रही, बेआवाज। सिर्फ आँसू झरते रहे थे। पूछने पर बताया, खुशी के आँसू हैं ये। गाँव की औरतें ताना मारती थीं कि खुद ढोएगी गोबर और भतार को बनाएगी कप्तान, लेकिन अब कोर्इ कुछ नहीं कहेगा, मेरी पत बच गर्इ।

वे भी रोने लगे थे उसका कंधा पकड़कर।

जाने कितनी मनौतियाँ माने हुए थी वह। सत्यनारायण... संतोषी... शुक्रवार... विंध्याचल... सब एक-एक करके पूरा किया था। जरा-जीर्ण कपडे़ में पुलकती घूमती उसकी छवि, जिसे कहते हैं, राजपाट पा जाने की खुशी।

सर्विस ज्वाइन करने के बाद एक-डेढ़ साल तक वे हर माह के द्वितीय शनिवार और रविवार को गाँव जाते रहे थे। पिता, पत्नी, पुत्री सबके लिए कपडे़-लत्ते तथा घर की अन्य छोटी-मोटी चीजें, जो अभी तक पैसे के अभाव के कारण नहीं थीं, वे एक-एक करके लाने लगे थे। पत्नी को पढ़ाने के लिए एक ट्यूटर लगा दिया था। पत्नी की देहाती ढंग से पहनी गर्इ साड़ी और घिसे-पिटे कपडे़ उनकी आँखों में चुभने लगे थे। एक-दो बार शहर ले जाकर फिल्म वगैरह दिखा लाए थे, जिसका अनुकरण कर वह अपने में आवश्यक सुधार ले आए। खड़ी बोली बोलने का अभ्यास कराया करते थे, लेकिन घर-गृहस्थी के अथाह काम और बीमार ससुर की सेवा से इतना समय वह न निकाल पाती, जिससे पति की इच्छा के अनुसार अपने में परिवर्तन ला पाती। वह महसूस करती थी कि उसके गँवारपन के कारण वे अक्सर खीज उठते और कभी-कभी तो रात में कहते कि उठकर नहा लो और कपडे़ बदलो, तब आकर सोओ। भूसे जैसी गंध आ रही है तुम्हारे शरीर से। उस समय वह कुछ न बोलती। चुपचाप आदेश का पालन करती, लेकिन जब मनोनुकूल वातावरण पाती तो मुस्कराकर कहती, ''अब मैं आपके 'जोग' नहीं रह गर्इ हूँ, कोर्इ शहराती 'मेम' ढूँढ़िए अपने लिए।''

''क्यों, तुम कहाँ जाओगी?''

''जाउँगी कहाँ, यहाँ रहकर ससुरजी की सेवा करूँगी। आपका घर-दुवार सँभालूँगी। जब कभी आप गाँव आएँगे, आपकी सेवा करूँगी''

''तुमने मेरे लिए इतना दुख झेला है, तुम्हारे ही पुण्य-प्रताप से आज मैं धूल से आसमान पर पहुँचा हूँ, गाढे़ समय में सहारा दिया है। तुम्हें छोड़ दूँगा तो नरक में भी जगह न मिलेगी मुझे?''

लेकिन उनके अंदर उस समय भी कहीं कोर्इ चोर छिपा बैठा था, जिसे वे पहचान नहीं पाए थे।

जिस साल लालू पैदा हुआ, उसी साल पिताजी का देहांत हो गया। क्रिया-कर्म करके वापस गए तो मन गाँव से थोड़ा-थोड़ा उचटने लगा था। दो बच्चों की प्रसूति और कुपोषण से पत्नी का स्वास्थ्य उखड़ गया था। शहर की आबोहवा तथा साथी अधिकारियों के घर-परिवार का वातावरण हीन भावना पैदा करने लगा था। जिंदगी के प्रति दृष्टीकोण बदलने लगा था। गाँव कर्इ-कर्इ महीनों बाद आने लगे थे। और आने पर पत्नी जब घर की समस्याएँ बताती तो लगता, ये किसी और की समस्याएँ हैं। इनसे उन्हें कुछ लेना-देना नहीं है। वे शहर में अपने को 'अनमैरिड' बताते थे। इस समय तक उनकी जान-पहचान जिला न्यायाधीश की लड़की ममता से हो चुकी थी और उसके सान्निध्य के कारण पत्नी से जुड़ा रहा-सहा रागात्मक सम्बन्ध भी अत्यंत क्षीण हो चला था।

तीन-चार महीने बाद फिर गाँव आए तो पत्नी ने टोका था, ''इस बार काफी दुबले हो गए हैं। लगता है, काफी काम रहता है, बहुत गुमसुम रहने लगे हैं, क्या सोचते रहते हैं?''

वे टाल गए थे। रात में उसने कहा, ''इस बार मैं भी चलूँगी साथ में। अकेले तो आपकी देह गल जाएगी।''

वे चौंक गए थे, ''लेकिन यहाँ की खेती-बारी, घर-दुवार कौन देखेगा? अब तो पिताजी भी नहीं रहे।''

''तो खेती-बारी के लिए अपना शरीर सुखाइएगा?''

''तुम तो फालतू में चिंता करती हो,'' लेकिन वह कुछ और सुनना चाहती थी, बोली थी, ''फिर आप शादी क्यों नहीं कर लेते वहाँ किसी पढ़ी-लिखी लड़की से? मैं तो शहर में आपके साथ रहने लायक भी नहीं हूँ।''

''कौन सिखाता है तुम्हें इतनी बातें?''

''सिखाएगा कौन? यह तो सनातन से होता आया है। मैं तो आपकी सीता हूँ। जब तक बनवास में रहना पड़ा, साथ रही, लेकिन राजपाट मिल जाने के बाद तो सोने की सीता ही साथ में सोहेगी। लालू के बाबू, सीता को तो आगे भी बनवास ही लिखा रहता है।''

''चुपचाप सो जाओ।'' उन्होंने कहा, लेकिन सोर्इ नहीं वह। बड़ी देर तक छाती पर सिर रखकर पड़ी रही फिर बोली, ''एक गीत सुनाऊँगी आपको। मेरी माँ कभी-कभी गाया करती थी।'' फिर बडे़ करूण स्वर में गाती रही थी वह, जिसकी एकाध पंक्ति ही अब उन्हें याद है- '' सौतनिया संग रास रचावत, मों संग रास भुलान, यह बतिया कोऊ कहत बटोही, त लगत करेजवा में बान, सँवरिया भूले हमें...''

वे अंदर से हिल गए और उसे दिलासा देते रहे कि वह भ्रम में पड़ गर्इ है, पर वह तो जैसे भविष्यद्रष्टा थी। आगत, जो अभी उनके सामने भी बहुत स्पष्ट नहीं था, उसने साफ देख लिया था। उनके सीने में उसने कहीं 'ममता' की गंध पा ली थी।

उस बार गाँव से आए तो फिर पाँच-छह महीने तक वापस जाने का मौका नहीं लग पाया। इसी बीच ममता से उनका विवाह हो गया। शादी के दूसरे तीसरे महीने गाँव से पत्नी का पत्र आया कि कमला को चेचक निकल आर्इ है। लालू भी बहुत बीमार है। मौका निकालकर चले आइए। लेकिन गाँव वे पत्र मिलने के महीने भर बाद ही जा सके। कोर्इ बहाना ही समझ में नहीं आ रहा था, जो ममता से किया जा सकता। दोनों बच्चे तब तक ठीक हो चुके थे, लेकिन उनके पहुँचने के साथ ही उसकी आँखें झरने-सी झरनी शुरू हो गर्इ थीं। कुछ बोली नहीं थी। रात में फिर वही गीत बड़ी देर तक गाती रही थी। उनका हाथ पकड़कर कहा था, ''लगता है, आप मेरे हाथों से फिसले जा रहे हैं और मैं आपको सँभाल नहीं पा रही हूँ।''

वे इस बार कोर्इ आश्वासन नहीं दे पाए थे। उसका रोना-धोना उन्हें काफी अन्यमनस्क बना रहा था। वे उकताए हुए से थे। अगले ही दिन वे वापस जाने को तैयार हो गए थे। घर से निकलने लगे तो वह आधे घंटे तक पाँव पकड़कर रोती रही थी। फिर लड़की को पैरों पर झुकाया था, नन्हे लालू को पैरों पर लिटा दिया था। जैसे सब कुछ लुट गया हो, ऐसी लग रही थी वह, दीन-हीन-मलिन।

वे जान छुड़ाकर बाहर निकल आए थे। वही उनका अंतिम मिलन था। तब से दस साल के करीब होने को आए, वे न कभी गाँव गए, न ही कोर्इ चिट्टी -पत्री लिखी।

हाँ, करीब साल भर बाद पत्नी की चिट्ठी जरूर आर्इ थी। न जाने कैसे उसे पता लग गया था, लिखा था-कमला नर्इ अम्मा के बारे में पूछती है। कभी ले आइए उनको गाँव। दिखा-बता जाइए कि गाँव में भी उनकी खेती-बारी, घर-दुवार है। लालू अब दौड़ लेता है। तेवारी बाबा उसका हाथ देखकर बता रहे थे कि लड़का भी बाप की तरह तोता-चश्म होगा। जैसे तोते को पालिए-पोसिए, खिलाइए-पिलाइए, लेकिन मौका पाते ही उड़ जाता है। पोस नहीं मानता। वैसे ही यह भी...तो मैंने कहा, 'बाबा, तोता पंछी होता है, फिर भी अपनी आन नहीं छोड़ता, जरूर उड़ जाता है, तो आदमी होकर भला कोर्इ कैसे अपनी आन छोड़ दे? पोसना कैसे छोड़ दे? मैं तो इसे इसके बापू से भी बड़ा साहब बनाऊँगी...'

उन्होंने पत्र का कोर्इ उत्तर नहीं भेजा था। हाँ, वह पत्र ममता के हाथों में जरूर पड़ गया था, जिसके कारण महीनों घर में रोना-धोना और तनाव व्याप्त रहा था।... और करीब नौ साल बाद आज यह दूसरा पत्र है।

पत्र उनके हाथों में बड़ी देर तक काँपता रहा और फिर उसे उन्होंने जेब में रख लिया। मन में सवाल उठने लगे- क्या मिला उसको उन्हें आगे बढ़ाकर? वे बेरोजगार रहते, गाँव में खेती-बारी करते। वह कंधे से कंधा भिड़ाकर खेत में मेहनत करती। रात में दोनों सुख की नींद सोते। तीनों लोकों का सुख उसकी मुट्ठी में रहता। छोटे से संसार में आत्मतुष्ट हो जीवन काट देती। उन्हें आगे बढ़ाकर वह पीछे छूट गर्इ। माथे का सिंदूर और हाथ की चूड़ियाँ निरंतर दुख दे रही हैं उसे।

सारे दिन किसी कार्यक्रम में उनका मन नहीं लगता।

शिवमूर्ति

2/325, विकास खंड, गोमती नगर, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
Mobile: 09450178673
Email: shivmurtishabad@gmail.com


शाम को जीप वापस लौट रही है। उनके मस्तिष्क में लड़के का चेहरा उभर आया है- जैसे मरूभूमि में खड़ा हुआ अशेष जिजीविषा वाला बबूल का कोर्इ शिशु झाड़, जिसे कोर्इ झंझावात डिगा नहीं सकता। कोर्इ तपिश सुखा नहीं सकती। उपेक्षा की धूप में जो हरा-भरा रह लेगा, अनुग्रह की बाढ़ में जो गल जाएगा।

जीप गेट के अंदर मुड़ती है तो गेट से सटे चबूतरे पर लड़का औंधा लेटा दिखार्इ देता है। मच्छरों से बचने के लिए उसने अंगौछे से सारा शरीर ढँक लिया है। जीप आगे बढ़ जाती है।

अंदर उनकी चार साल की बेटी टी.वी. देख रही है। आहट पाकर दौड़ी आती है और पैरों से लिपट जाती है। फिर महत्वपूर्ण सूचना देती है तर्जनी उठाकर, ''पापा, पापा, ओ बदमाश लड़का, बरामदे तक घुस आया था। मम्मी पूछती, तो बोलता नहीं था। भगाती तो भागता नहीं था। मैंने अपनी खिलौना मोटर फेंककर मारा, उसका माथा कटने से खून बहकर मुँह में जाने लगा तो थू-थू करता हुआ भागा। और पापा, वह जरूर बदमाश था। जरा भी नहीं रोया। बस, घूर रहा था। बाहर चपरासियों के लड़के मार रहे थे, लेकिन मम्मी ने मना करवा दिया।''

वाश-बेसिन की तरफ बढ़ते हुए वे ममता से पूछते हैं, ''कौन था?''

''शायद आपके गाँव से आया है। भेंट नहीं हुर्इ क्या?''

''मैं तो अभी चला आ रहा हूँ, कहाँ गया?''

''नाम नहीं बताता था, काम नहीं बताता था, कहता था, सिर्फ साहब को बताऊँगा। फिर लड़के तंग करने लगे तो बाहर चला गया।''

''कुछ खाना-पीना ?''

''पहले यह बताइए, वह है कौन?'' एकाएक ममता का स्वर कर्कश और तेज हो गया, ''उस चुड़ैल की औलाद तो नहीं, जिसे आप गाँव का राज-पाट दे आए हैं? ऐसा हुआ तो खबरदार, जो उसे गेट के अंदर भी लाए, खून पी जाऊँगी।''

वे चुपचाप ड्राइंगरूम में आकर सोफे पर निढाल पड़ गए हैं। चक्कर आने लगा है। शायद रक्तचाप बढ़ गया है।

बाहर फागुनी जाड़ा बढ़ता जा रहा है।

सबेरे उठकर वे देखते हैं- चबूतरे पर 'गाँव' नहीं है।

वे चैन की साँस लेते हैं।



( यह कहानी सारिका कथापत्रिका के दिसम्बर (द्वितीय) 1984 के अंक में प्रकाशित हुई थी।

Friday, December 15, 2017

मथुरीको बाख्रो


मथुरियक बकर
( कुमायुनी भााषामा लेखिएको यो कथालाइ कथाकार अनिल कार्कीको कथासंग्रह " भ्यास और अन्य कहानियाँ" बाट साभार लिइएकोछ । )


थुरि सिध् दिमागक मैस बिल्कुल न छी, न वीक दिमाग ठीक चलछि। नान् छना उकै लकु मार गयोछि, जै कारण उ सीध ढंगल हिट्ले न सकन और साफ बोलि ले न सगन। पहाड़ में कहावत छू कि ’डुण पाजि, काण् खाजी और लाट उत्पाती हूं।‘ मथुरि ले कम नहा, वील आपुण जीवन में कभै हार न मानि। उ तो नानतिनन वाल आदिम छू। या वीक बार में कैई जाओ तो वीक घर में सैणि छू, भरी पूरी परिवार छू। यो अलग ढंगक् मैसकि आपुण एक भाषा छू, जकै गूँ लोग समझ तो सगनन, लेकिन वीक दगाड़ बोल नी सगन।
       ब्यावकै अनियार हुण बखत उ लड़खडू़नैं टार्च ली भैर ऊणछी तो पाल् गूँ लोगों ले वीक त्यरछ-म्यरछ टार्चक फोकस हिलूणक कारण उकै पछणि दी और कूण पैठन कि “उ तो जरूर मथुरि हुन्यल”। जब उ उनार मुखअक समणिले पुजिभैर कूण पैठअ कि “म्यार बकर हरा ग्यो, बताओ धै को-को घा काटणि ही जाराछि बण! अगर तिमिल ले म्यार बकर कति द्यखौ तो बताओ मैंकैं, मैं तो दिन भर परेशान है गईं आज।” घा काटणि वालनैल् छाजन लै भे भ्यारकै देख भैर कूण पंैठीं- “नै नै जिभौज्यू हमिल न दैय्ख! होय दानसिंह कैं जरूर देखौ ’पात्लि गड़ा‘ तरफ कान् में बडि़याठ धरि भेर लकाड़नहि जाणछी कि पत्त उनिल देखौ जब? य बात सुणि भेर मथुरियल आपुण टार्चक बटन में काटी-फाटी बुड़ अंगुल धर भे पाल गूँ बे मल्धार तक अन्यारमें आपुण नान्छनाक् दगडु़ दानसिंहक् गुन्याव तक पुजौ तो वाँ पेली बे दानसिंह ठाड़ छि। जसै् दानसिंहल् मथुरि कैं देखो तो गरम जोशक दगाड़ नमस्कार कर और तुरंत पुछण पैठ् कि “त्यर बकर हरा र हुन्यल न आज? तू ले यार? कि बार छू आज?” मथुरि आपुण भाषा में बोलण लागौ ’मनलबार!‘ आज तो मंगलबार छू। दानसिंहल् मथुरि कैं नड़क्या भेर को “यले क्वे बार छू आपुण दगडु़क् घर उणक! बुधबाराक् दिन आ जनै!”
       मथुरि कैं लागौ कि क्वै भारि गलती है गे आज उ कयाँ, य सोचि भेर मथुरि झैपण पैठौ। असलमें बचपनक् दगड़ु जै भ्यो दानसिंह मथुरियक्, दगड़ में माछ मारी भ्याय दुयिनले। और तो और जब मथुरि कंै लकु पडौ़ ठीक उदिन बयावक चपेट में उन-उनै बचि छि दानसिंह ले। लेकिन जदिनभे घर गृहस्थी हैगे, उदिन भै दुयिनाक खुट् जस बाधि गईं। आब कभै-कभै मिलनन् तो दागाड़ में एक बीड़ जतुक पी सकनन् बस। और तो और कबखतै कैका दुकान में या हिटनबाट् भेंट हंै जैं जबत एक दुसर् छैं इतुकै पूछि सकनन् कि नानतिन कस छिन यार! मथुरि न दानसिंहक् बार् में पुछि सकँू और न दानसिंह मथुरि छै कै सकूँ कि “कस छै रे तू?” लेकिन आज दानसिंह ले कूण पैठ् “ठीक टैम में आरछै रे! इदू सालन में पैल बखत फुरसतल भेट हुणैं, आब् खाण खा भैर जालैं!” मथुरि कैं लागो कि बकर खोजणि ही नै, बल्कि उ दगड़ु खोजणि आ रौ। उकैं नान्छनानक् दगड़ु दानसिंह याद एगो जैक दगाड़ उ गङक् रिवाड़ में दिन भरि बजरी में नाङगड़ पडि़ रुछि और गरम हुण में गंङ में डुबकी लगूछि, फिर गरम बजरी में पड़ी जाछि। कधेलि पेटक ओर तो कधेली पीठक ओर। लेकिन आब् उ यस बिती अनुभव छि कि जकंै क्वे अनुभवक न्यात याद कर सकछी। मथुरि या दानसिंह जोर-जोरल धात् लगै भेर यस ले न कैं सगछि कि हमिल गंङ में नाङड़ ना। लेकिन उ जरूर आपुण च्यालनन् छैं कैं सगछि कि “अगर गंङ में नाणि जाणछा तो बजरी में न खेलिया, आँख भतौर लै जाल और शरीर काउ पड़ जाल, जल्दी-जल्दी नैं भैर घर आया, दिन बिथत न करिया और वैं न रया।” पैली और आज में भौते फरक है ग्यो मथुरि कूण पैठ् “मैं न रुकनि दानसिंह म्यार बकर...” 
       दानसिंहल् जवाब द्यो कि “नै-नै मैं क्या न सुणनि, तुकै रुकण पड़ल, आज नई फसलक नई खाण छू हमार घर, शिकार बणा राखो और थ्वाड़ लाल शराब ले छू। ग्यूंक् कटै् और पिसै ले हैगे आज, ईष्ठ-मितुर सब आरान, कदुक भल संजोेग छू कि तु ले आरछ, आब नै न कये।” 
इदुक में दानसिंहक् चेलिल् मथुरियक हाथ में चहाक् गिलास थमा द्यो, मथुरि यस माय देखि भैर खुश है ग्योछि, उकैं लागअ कि 
कधैलि दानसिंह कैं आपुण घर बुला भैर यस खातिरदारी करुल कि उलै याद धरल् और मथुरि कूण पैठ् “पर...दान सिंह मैं तो बकरक् बारमें खोज-खबर करणहि आरछि भाई...”
       दानसिंह कैं फिर खीझ भै और कूण पैठ् “भोई कर लिये खोज-खबर, कैका गोरु-बाछों दगाड़ लागि ग्यो न्यल, भोई पत्त् चलि जाल, अछयान बाघ ले न लागि रअ जंगल, तु चिंता न कर, भोई मिल जाल त्यार बकर।”
आब मथुरि चुप है ग्योछि और नौ-रवाट् पाकण लागि रौछि। मेहमान सब एक जाग गुन्यावमें बैठ ग्याछि। बाँजक लकाड़क् आग् में चढि़ लू भध्याव् में शिकारक् भिटकण आवाजक बीचमें, शराबक बोतलकैं ताउ में दानसिंहले हल्क कूणले मारी जबत ख्याटक् आवाजक दगाड़ बोतलक शील खुलि गे और चाखमें बैठ भैर स्टीलक् गिलास में शराब हालि भेर दानसिंहल् छाजबे भ्यारकै देखौ और धात् लगूँण पैठ् “अरे थ्वाड़ राॅग् शिकार निकालि भै तो दिओ।”
       थ्वाड़ देर में दानसिंहक् घरवालि एक थाई में सुकि शिकार चाख में धरि भैर आगछि तो फिर दुईनल् पूरि बोतल पी दे। आब् उनार अणकसि बातोंनक् न पूँछड़ पत्त छि और न हीं ख्वारक। मथुरि तो आड़-तिरछ पैलि भै छि। शराब पी भैर उ ज्यादा त्यरछै है ग्योछी। जब दानसिंहल् वींहैं मजाक कर भै कौ- “चल पैं आब सोमबार बे मंगल इतवार तकक् नाम बता दे यार मथुरि।” तो वील बत्तीक् हल्क् उज्याव में आपुण बुँ हाथक बुरमट्ठी आंगुल आपुण टिट् िअंगुलक् पैली पाय में राखि भैर गिड़न शुरू कर् पैठौं- “चों, मनल, पुच्छ, भीपें, चुक्क्ल, छनज, इताल” मथुरि लाटक् यस बुलण सुणि भैर दानसिंह हँस ग्यो और दानसिंह देखि भेर मथुरि, और फिर दुईय् हसैण पै गईं, मजाक-मजाक में सामणि धरी बत्ती जमीन में घुरि गै, और मिट्टीतेलक बास पुर भतर फैल गै। जब तक दानसिंह बत्ती जुगुत में लागिरछि तब तक मथुरियल आपुण चार सैल वाल टार्च निकालि भैर आपुण टार्च जला दे और टार्चक फोकस टैड़-म्यड़ हिलण-हिलण घरक धुरि में टेकि ग्योछि, तब वील ध्यानल देखौ कि जै जाग् टार्चक फोकस् अटक् रोछि उ जाग् धड़है अलग बकरक् ख्वर लटकी छि। मथुरि चैंकौ और फिर उकैं आपुण बकरक् याद आ गेछि, वील ध्यानल् चा जबू तो आपुण बकर कैं पछणि ग्योछि, किलैकि वीक काऊँ बकरक् चानि में सफेद बालनकि चिंदी छि, फिर वील टार्च कैं हटै भैर दानसिंहक् तरफ हीं लगा द्यो। उकैं लागो कि दानसिंहल् खिला-पिला भै मूतल चुट्ठै दी। वीक मन भ्यो कि अल्लै कैं द्यूँ उहैं “साल म्यार बकर मैंकैं खिला भैर, त्यरि तौलि त्यार मुख में रौलि कर दयो त्वील।” लेकिन जब वील दानसिंहकंै घूरौ तो दान सिंह झिझक भै इदुकै कै बैठ कि “बकरक मुनि छू”
       मथुरि जल्दी-जल्दी उठौ और दानसिंहक् घर वालन छै भली कै मिलि भैर टार्च जला भैर घर ही बाट लागि ग्यो। शायद उधैल रातक दस-ग्यारह बाजि रौ हुन्याल, मथुरि क्वेेले दार्शनिक सवालल न टकराईं और सुन्न झै है ग्योछि। करीब आधुक बाट हिट भैर आपुण हैं कूण लागौ - “ठीक भ्यो कि मैंल दानसिंह छ न कय कि य म्यारअ बकर छू...कि पत्त् जब म्यर बकर न छि, चनेल बकर और ले तो है सकनन्। अगर म्यार बकर हुन तो दानसिंह मैकैं क्या खिलूँन वीक शिकार? क्या पिलून लाल शराब? कति मैं उधेलि कै दिनि कि म्यार बकर मैंकैणि खिलूणरछै तू चोर साल... तो कि इज्जत बचनि इष्ट-मितुरन में म्यार बचपनक दगड़ु दानसिंहकि। चलो आज एक पाप हुणल बचि ग्यो म्यार हाथों...”
       फिर उ द्विमन है ग्योछि “दानसिंहकैं बिना म्यार बताय कसिकै पत्त् चल् कि म्यार बकर हरारौ...। और शिकार ले भौत कौंल छि पठ्क जस। म्यार बकर ले आठ-नौ महीणक तो छि...”फिर वील खुद छै को “नै-नै बचपनक् दगणु छू दानसिंह, खानदानी आदिम छू कभै यस न कर सगन।” लेकिन बात कंै उलझण जै पैठी मथुरि कंै, और घरक् करीब-करीब पुजण में जब वीक नशस् उतर ग्योछि तो कूण पैठ्- उ म्यर बकर छि, आज तो पुर इलाक में कैलै बकर न काट, फिर दानसिंह शिकार कां भैर ला्? जब उ रात्त बण् लकाड़ काटणि जारहि तो दुकान कबखत ग्यो? चुत्ति साल लकाड़नक दगाड़ म्यार बकर ले काटि भै ला हुन्यल। 
मथुरियल कुछ देर बाद सोचि भैर कौ “नै-नै कैछैं य बात बतूण ले पाप होल। दानसिंहक् करम उकै दुखाल एक दिन, बचपनक् दगड़ु छू म्यार। मैल वीहैं दगडु़ कै राखौ, आब मैकैं कूण पड़ल कि बकर कै बाघ लिगौ, पाल गूँ घा काटणि वालनल् बकर में बाघ कैं झपटण देख् िभेलि। बैंकि आज बे कभै दानसिंहक् दगाड़ बात नि करूँ।” वील द्वार खोलौ जब् मथुरियक घरवालि कौ- “क्वै खोज-खबर मिली?”
       मथुरियल को होय मधुली मिलि! हमार बकर कैं कुकुरि बाघ लिजारौ मधुली!
       मधुलील मथुरि कैं पाणिक गिलास थमा भैर को “क्वे बात न, आब्बै थ्वाड़ दिनन में बकर फिर ब्याणि छू, फिर उस्सै चनेलि पाठ् द्यौल हमार बकर। दुख किलै मनणछा कि चिंता करण आब्!” जवाब में मथुरि इदुकै कैं सगौ कि “बकर तो फिर पाठि देलि मधुली, पर नान्छनक् दगडु़ दानसिंह काँ भै मिलल! 
एक लम्ब् सांस ले भैर मथुरि बाभ्यो निवारक् खाट में चधरलि मुँख ढकि भैर पडि़ ग्यो।”

आफनो माटोमा आफ्नै बाल्यकाल

( साभार - डा अनिल कार्कीको संस्मरणहरुबाट )
अगास में पंछी रिटो धर्ती पड़ी छाया
जसि तेरी पानी तीस उसी मेरी माया
 सब किसी न किसी तंग दर्रे में ही पैदा हुए। वह तंग दर्रा संर्कीणताओं का भी हो सकता है। अन्धविश्वासों का भी हो सकता है या कि वह गरीबी और फटेहाल हालातों का तंग दर्रा भी हो सकता है। हम जब तंग दार्रों से खुले अकाश में आते हैं। तब तंग दर्रे हमें किसी रोमांचक अनुभव से भर देते हैं। पंछियों से हमारे मन ने उड़ना सीखा है। किसी लोकगायक ने इस पर क्या अद्भुद कहा है।
आसमान उड़न्या पंछी पानी पिन्या रैछ
मैं ज कूँ छ्युँ दिन जानान उमर जान्या रैछ।
(आसमान में उड़ने वाला पंछी भी पानी पीने के लिये धरती के पास ही उतरता है ओह मैं समझता था दिन गुजरते है पर असल में हम सब की उम्र गुजर जाती है)
पंछियों के बहाने हमने भी कई उड़ानें भरीं। जीवन के पाठ पढ़े । जिन पंछियों से मैंने बचपन में संवाद किया है। मैं, कभी-कभी उन पंछियों की आवाजें सुन के आज भी ठिठक जाता हूँ। आज मैं उन पंछियों के बारे में बात करूँगा जो कहीं स्मृतियों में बैठ गये हैं। पहली स्मृति बहुत बालपने है। ईजा अपने पैरों पर बैठा के लौरी गा रही है। लौरी में एक पंछी का जिक्र आता है।
घूघूती बासूती
आम् का छ
भाड़ मे छ
(ओ! घुघूती बास तो तू/और बता आमा कहाँ है? /भाड़ में है ।)
पहला गीत हम पहाड़ी या हिमाली लोगों ने शायद घुघूती पर यही सुना होगा। क्योंकि घुघूती से हमारा बचपन, जवानी और बुढ़ापा जुड़ा है। आप पूछेंगे कैसे? बचपन में हम घुघूती पर लौरी सुनते थे। जवानी में घुघूती के बहाने अपने प्रिय को याद करते । लोकगायक गोपालबाबू गोस्वामी का यह गीत याद तो है ना?
घुघूती न बासा
आमाकी डाई में
घुघूती नी बासा
तेरी घुरघुर सूणी
मैं लागो उदास
स्वामी मेरा परदेश
बर्फिला लदाख
घुघूती नी बासा
यानि कि ओ! घुघूती मत बोल। आम की डाली में बैठ कर/तेरी घूर-घूर सुन के / मुझे उदास लग जाता है/ मेरे स्वामी इस समय नोकरी पर है / बर्फीले लद्दाख में। घुघूती पर एक मार्मीक गढ़वाली गीत भी है। इस गीत में एक स्त्री घुघूती को याद करते हुए चैत का माह याद करती है। अपने पिता का घर याद करती है।
घूघूती घूरूण लैगी मेरा मैत की
बौड़ी बौड़ी आग्ये रितु रितु चैत की।
(मेरे मायके की घुघूती बोलने लगी है कि आ गई रितु चैत की)
हमारे यहाँ बुढ़ापे में जब कोई बहुत कमजोर हो जाता है । उसके बाल सफेद हो जाते हैं सा सूख उसकी गर्दन पतली हो जाती है। वह कृशकाय दिखने लगता है तो उस उससे कहते हैं, “देखो! घुघूत जितना रह गया है” (जब घुघूती अण्डे सेती है तो मरगिल्ली सी हो जाती है उसी का संन्दर्भ ले कहते होंगे) फिर वह पुसुड़िया उत्तरायणी में का त्यार (त्यौहार) याद आ गया। घुघूते उड़ाने का उत्साह तो अजब-गज्जब था। अलसुबेर चार बजे नहा धो के झन्नाटेदार ठण्ड में कौवे बुलाने लगते।
काले कौवा का का
पूसकि रोटी माँघै में खा
ले कौवा भात मै दे सुनु की थात
ले कौवा पुरी
मै दे सुनु की छुरी
ले कौवा लगड़
मै दे भ्ये बैणियों क् दगड़
ले कौवा बड़ो
मै दे सुनु को घड़ो
ले कौवा क्वे
मै दे भलि ज्वे
(कोले कौवा का का । आजा! पूस की रोटी माँघ मे ही खा जा। ले खा भात, मुझे दे बदले में सोने की थात। ले यह पूरी, मुझे बदले में दे सोने की छुरी। ले खा ले लगड़, बना रहे भाई बहनों का दगड़ (साथ)। ले कौवा बड़ा ले, बदले में सोने का घड़ा दे। ले कौवा क्वे, बदले में दे मुझे अच्छी सी ज्वे । यानी कि अच्छी पत्नी या पति )
बचपन में, मैं एक सवाल सभी से पूछता था। “घुघूते ही क्यों उड़ाते हैं कोई दूसरी चिड़िया कयों नहीं?” तो घर वाले या बड़े-बुजुर्ग कहते, “क्योंकि घुघूते पवित्र होते हैं।” मेरी जिज्ञासा यही पर दम तोड़ देती । मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि हमारे लोक में घुघूती जैसे सरल पंछी के प्रतीक को कौवे को खिलाने का क्या मतलब रहा होगा । जो भी मतलब रहा हो पर कौवा जब जूठा करके घुघूते छोड़ जाता तो गाँव के बड़े बुजुर्ग कहते, “इस झूठे को गर्भवती भैंसों व गाय को खिला दो ।” उनकी उटपटाँग धारणा थी इसे खाने के बाद जानवर मादा संन्तान ही पैदा करते हैं। कौवे को लेकर बड़ी रहस्यमय और रोमांचक बातें हमने बचपन में सुनी थी। जैसे, अगर कौवा आँगन में बैठ के काँव-काँव करने लगे तो वह यह बता रहा कि कोई प्रिय मेहमान आने आने वाला है। जब भी कौवा आँगन में बैठता तो हम चिल्ला उठते
साँचि छै सर
झुठि छै मर।
यानि कि, साँच है तो जा उड़कर दूसरी जगह जा और झूठा है तो मर जा। इसके विपरित यदि वह कड़ाती (कर्कश) हुई ध्वनि निकालता तो सब उसे भगाने लगते यह किसी बुरी खब़र का प्रतीक माना जाता । हमारे प्रवासी पहाड़ियों के लिये एक कहावत है जब वे परदेश में होते और उन्हें अपने देश का कौवा भी दिख जाये तो वह भी उन्हें लाडला लगता है। मैंने एक बार एक रूसी उपन्यास ’पराजय’ में छापामार यु़़द्ध के बाद अनाज को छोड़ कर भागे ग्रामीणों के खेतों में कौवे का अद्भुद चित्रण पढ़ा। मैं जब भी कौवा देखता हूँ इस उपन्यासकार को जरूर याद करता हूँ। उम्मीद करता हूँ कि कभी मैं भी कोई ऐसा ही अमिट चित्र गढ़ सकूँगा। बचपन में दूर आसमान में उड़ रहे चील से जिसके फैले डैने विशाल हाथों से लगते थे। उन डैनों के अगले हिस्से ठीक अंगुलियों की तरह होते। जैसे ही वो हमें दिखता हम चिल्लाते
अरे ओ ! चिलड़ी मुनड़ी हल्कै दे। ओ!
चील अपनी अंगुली में पहनी मुनड़ी तो हिला दे। वह सुनता था या नही पर जैसे ही हम यह कहते वह अपने डैनों को झ्याप-झुप्प से खोल-बन्द करता। हम कहते, “देखो उसने सुन लिया और अपनी मुनड़ी हिला दी। कोयल जैसे ही बोलती, “कूहू” हम समझते वह पूछ रही है कि कौन है? हम उत्तर देते, “अरे। हम है।” वह पिर बोलती, “कूहू” तो हम हड़का के कहते, “मैहूँ” पर कोयल कहाँ चुप रहती वह बोलती जाती और हम कौन कम थे, हम भी उस पर चिल्लाने लगते। वह बोलती “कूहू” तो हम कहते तेरी ईजा (माँ) है। तेरा बाब (पिता) है। इसी तरह जाने क्या अण्ड बण्ड उससे कहने लगते। पहाड़ में जब खेत में नाज पकने को होता है उस समय में एक चिड़िया बोलती है। उसका बोलना इस तरह सुनाई देता है। “बी कूई ग्यो” हम उसका अर्थ इस तरह लगाते थे, ’बीज सड़ गया है’। वह चिड़िया कह रही है, “गाँव वालो जल्दी से नाज समेटो वरना बीज सड़ जायेगा।” बड़े बुजुर्ग भी यही दोहराते थे। पहाड़ों में जब एक पहाड़ी जंगली मीठा फल ’काफल’ पकता है तो एक चिड़िया यों बोलती है “काफल पाक्को” लगतस है जैसे कह रही हो काफल पक गया है। जैसे ही वह बोलती हम उसे पलट जवाब देते “मैले नै चाख्खो” मतलब कि अभी मैंने नहीं चख्खा है और तू कह रही काफल पक गया है।
इस तरह के सैकड़ो पंछीयों से हम झगड़ते और संवाद करते। उनसे रूठते और उन्हें मनाते थे। क्या अजीब दौर है यह, हमने तो जैसे अपने बच्चों घरनुमा जेल में कैद ही कर दिया है। अब उन पर आरोप कि वे कार्टून देखने से बाहर ही नहीं निकल पाते। रात दिन टीवी से चिपके रहते हैं। दरअसल बच्चांे पर यह आरोप गलत है यह गुनाह हम बड़ों से हुआ है हम इसके दोषी है। क्योंकी हमने उन्हे प्रकृति से संवाद कर सकने की कला नहीं सिखाई। हमारी इस गलती को भविष्य के गंभीर नागरिक कभी माँफ नहीं करेंगे। वे अपनी काग़ज की डीग्रियाँ फाड़ कर एक दिन पूछेंगे कि हमको अपना बचपन क्यों नहीं जीने दिया गया? क्यों नहीं करने दिये गये पेड़, पहाड़, पंछी, पानी-नदी-सागर से हमें संवाद। क्यों हमें केवल रट्टू तोता बनाया गया। तब आप क्या कहेंगे? खैर आप भी क्या कहेंगे, मध्यवर्ग की दुहाई देने के अलावा। अब अन्त में एक लोककथा जो एक ऐसी पहाड़ी स्त्री की है जो कई जानवरों के साथ ही कागभक्या (कौवे की भाषा) जानती थी। वैसे मैंने एक तांत्रिक के पास कौवे का कटा पंजा देखा था। कौवे के पंजे इतने लचीले होते हैं कि वो तांत्रिक उस कटे पंजे से सबको ठगा करता था, “यह कौवे का पंजा आपकी अंगुली पकड़ के मुझे बतायेगा कि अपका भाग्य कैसा है?” मैंने कौवे के पंजे की पकड़ का कारण लोगों को समझाकर उस तांत्रिक की रोटी बन्द करवा दी थी । ओह वह कागभाषा जानने वाली औरत की कहानी ।
एक आदमी की शादी हुई। जैसे ही वे दोनों शादी से निपट के, कपड़े बदलने लगे दुल्हन अपने झुम्मर-झुमके उतारने को कान में हाथ लगा के रिंग घुमा रही थी कि ठीक उसी समय कहीं दूर शमशान में एक सियार बोला। दुल्हन का हाथ अचानक ठिठक गया। आदमी बोला, “क्या हुआ?” दुल्हन ने कहा, “मुझे थोड़ी देर के लिये बाहर खुली हवा में जाना है अकेले ” यह सुन के आदमी ने कहा, “ठीक है जाओ!” उस आदमी ने दुल्हन को जाने दिया पर चुपके से वह भी पीछे पीछे उसके साथ बारह निकल गया। जिस तरफ से सियार की आवज आ रही थी दुल्हन उसी ओर चली जा रही थी । आदमी अचानक चैंका, “यह क्या यह तो शमशान की तरफ जा रही है।” आदमी घबरा गया उसने देखा कि दुल्हन सियार के सामने वैसे ही हूँक रही है जैसे सियार हूँकता है। दुल्हन सियार के साथ पास ही रखे एक मुर्दे पर झुक गई । यह देख के आदमी डर के मारे थर-थर काँपने लगा । दुल्हन उस मुर्दे के पैरों के पास देर झुकी रही। फिर हाथों के पास, फिर छाती के पास, कान के पास। वह कुछ देर में उठ खड़ी हुई और सियार ने उस मुर्दे को खाना शुरू किया। दुल्हन ने अपना पल्लू ठीक किया और वह लौट आई यह सब आदमी देखता रहा। वह उसके पीछे पीछे घर आया । दुल्हन सबसे पहले जानवरों के गोठ (जहाँ जानवर बाँधे जाते हैं) में गई वहाँ दिवार पर बने फलिण्डे पर उसने कुछ रखा और और फिर कमरे में आई तो देखा कि आदमी थर-थर काँप रहा है। उसने एक नज़र दुल्हन को देखा और फिर भाग के अपने पिता के पास चला गया। बूढ़े पिता से उसने कहा, “पिता कैसी दुल्हन लाये आप मेरे लिये । वह ता नरभक्षी है । अभी अभी मैंने उसे सियार से बात करते हुए सुना। उसने शमशान में सियार के साथ मिलकर एक मुर्दे को खाया। यह सुन बूढ़ा बोला, “मैं कल ही इसे इसके पिता यहाँ छोड़ आऊँगा तू चिंता न कर।“ दूसरे दिन बूढ़़ा ससुर दुल्हन को लेकर वापस उसे उसके पिता के घर छोड़ आने को चल पड़ा। चलते-चलते जब वे थक गये तो वह एक छायादार पीपल के पेड़ की जड़ पर बने चबुतरे पर बैठे गये। पेड़ पर एक उड़ता हुआ कौवा आया और और काँव काँव करने लगा । दुल्हन समझ गई कि कौवा क्या कह रहा है? पर उसने कौवे की बात को अनसुना किया । जब कौवा जिद करने लगा तो वो अचानक बोल पड़ी, “तिरिया बोली ये गत भई, तू क्या बोले काग।” यह सुन के बूढ़ा ससुर ठिठक गया। वह बोला, “बहु! बात क्या है? क्या तू कागभाषा जानती हैं?” यह सुनकर बहु बोली “कल रात सियार बोला, “कोई मेरी बात समझ समझ सकते तो मेरी एक मदद कर दो, शमशान में एक लाश आई है। उसके पैरों से लेकर गले तक गहने है। तुम इन गहनों को खोल के ले जाओ और लाश मेरे लिये छोड़ जाओ।“ यह सुन कर मैं शमशान गयी और गहने ले आई जो मैंने बकरियों के गोठ के फलिण्डे पर छुपा दिये। पर तुम्हारे बेटे को लगा कि मैं उस लाश को पर झुक के उसे खा रही थी।” ससुर यह सुन कर और आश्चर्य में डूब गया। वह बोला, “अभी यह कौवा क्या कह रहा है?” तब दुल्हन ने बताया, “वह कह रहा है, ओ स्त्री! मेरी एक मदद कर दे, जिस पत्थर पर तू बैठी उसके दो हाथ नीचे एक सोने का घड़ा मिट्टी में दबा है। तू उस घड़े को निकाल ले जा, पर उस घड़े के मुँह में एक मेंढ़क बैठा है। मुझे बहुत तेज भूख लगी है उस मेंढ़क को मुझे दे जा। यह सुन कर बूढ़े ससुर ने पत्थर हटा के मिट्टी खोदनी शुरू की। दो हाथ नीचे उसे सोने के सिक्कों से भरा घड़ा मिला। उस घड़े के ऊपर एक मेंढ़क बैठा था कौवा झपटा और मेंढ़क को ले उड़ा । घड़ा वह वहीं पर छोड़ गया। यह देख के बूढ़ा ससुर खुश हो गया। उसने बहू से माफी माँगी उसे वापस घर ले आया । पहाड़ की लोक कथाओं में, गीतों में या कहावतों में सुनाई देने वाली उक्ति “तिरिया बोली ये गत भई, तू क्या बोले काग।” के पीछे यह रोमांचक कथा छुपी हुई है। ये मुझे भी बहुत बाद में जाकर पता चली । कागा, कोयल, पंछी तो अब गुजरे जमाने की बात हो गई।
एक सूफी सन्त फरीद ने तो जुदाई सह रही नायिका के लिये लिखा था।
कागा सब तन खाइयो
चुन चुन खाइयो मांस
दो नैना मत खाइयो
मोहे पीया मिलन की आश ।
जिसे आप इस समय के प्रचलित एक खूबसूरत हिंदी गीत ’नादाँ परिंदे घर आजा’ में सुन सकते है।
बची रहे आश और बना रहे विश्वास ।

Sunday, December 10, 2017

सेवा निबृत जीवन र जीवनसाथी


साभार- आशुतोष गर्गको ब्लगवाट )

सेवानिवृत्ति और आपके जीवन साथी के साथ संबंध - भाग 1

जब आप सेवानिवृत्त होते हैं, आपका बॉस बदल जाता है। किसी समय आपका बॉस वह था जिसने आपको नौकरी दी थी, अब आपका बॉस वह होता है, जिससे आपने शादी की। किसी ने ठीक ही कहा है, शादी, उस शराब की तरह है, जो जैसे-जैसे पुरानी होती चली जाती है, उसका नशा वैसे-वैसे ही बढ़ता जाता है।

आपकी सेवानिवृत्ति की अवधि तक आपकी शादी के लगभग तीन दशक हो चुके होते हैं। आपको लगने लगता है कि आप एक-दूसरे को बख़ूबी समझने लगे हैं, वैसे भी उन दिनों आप अपने-अपने करियर में इतने व्यस्त रहते हैं कि वास्तव में आपके पास एक-दूसरे को देने के लिए उतना समय भी नहीं होता है। आप अपने पूरे वैवाहिक जीवन में एक-दूसरे की निजता का सम्मान करते हैं और कभी एक-दूसरे के आड़े नहीं आते, आप गंभीर मसलों को दबे-छिपे रहने देते हैं। अब आपको लगता है कि पिछले तीन दशकों से आप अपने साथी के साथ जिस तरह दिन के पूरे 24 घंटे बिताना चाहते थे, वह समय आ गया है लेकिन आप यह जानकर हैरत में पड़ जाते हैं कि जैसा आपको लगता था कि आप अपने साथी को पूरा जानते हैं, क्या आप वैसा सच में अपने साथी को पहचानते भी हैं, या नहीं?

कई नाख़ुश युगलों की समस्या तब शुरू होती है, जब सेवानिवृत्ति को लेकर उनकी अपेक्षाएँ समान नहीं होती हैं और यह तब और भी बढ़ जाती है जब वे इस बारे में कभी बात तक नहीं करते। कुछ लोगों के लिए यह कुछ रोमांचक करने का बहुप्रतीक्षित समय होता है, वे अपने प्रियजनों के साथ अपने रिश्तों में नयापन लाना चाहते हैं या उसे मजबूत करना चाहते हैं और नए उद्देश्य तलाशते हैं। जबकि दूसरों के लिए इसका अर्थ कंप्यूटर के सामने या गोल्फ़ के मैदान में आराम से ढेर सारा समय बीताना हो सकता है।

एक-दूसरे को हलकान कर छोड़ने की बजाए, अच्छा हो कि दंपत्ति अपने भविष्य के लिए कोई ऐसी योजना बनाए, जिस पर दोनों की आपसी सहमति हो। उन्हें इस बारे में सोचने और चर्चा करने की ज़रूरत है कि वे कितना समय साथ में व्यतीत करना चाहते हैं और उसे किस तरह से गुज़ारना चाहते हैं। यह संवाद आप दोनों को सेवानिवृत्ति से बहुत साल पहले शुरू कर देना चाहिए।

सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद के कुछ सालों में नोंक-झोंक-तकरार होना बहुत ही आम है। शादी का तनाव तब और भी गहरा हो जाता है यदि दोनों में से कोई एक पहले सेवानिवृत्त होता है। विवाह एक संस्था है, जिसे बनाए रखने के लिए किसी को पूरे जीवन उस पर काम करते रहना पड़ता है, न कि सेवानिवृत्ति तक उसे ऐसे ही अनदेखा पड़े रहने दिया जा सकता है। सेवानिवृत्ति के बाद कई जोड़े एक-दूसरे के साथ अपना समय बहुत ख़राब तरीके से बिताते हैं क्योंकि वे एक-दूसरे के साथ निबाह नहीं कर पाते। हमारे कई ऐसे दोस्त हैं जिन्होंने सेवानिवृत्ति की उम्र में जब उनके बच्चे अपनी-अपनी ज़िंदगी में लग गए थे, अपनी अलग दुनिया बसाना पसंद किया या कोई दूसरा जीवनसाथी चुन लिया।

यहाँ तक कि वे शादियाँ जो नौकरी-चाकरी के दिनों में बनिस्बत ठीक जान पड़ती थीं, उनमें भी किसी न किसी कारण झगड़े होना शुरू हो जाते हैं क्योंकि पति-पत्नी अब हर दिन एक-दूसरे के साथ बहुत-सारा समय बीताने लगते हैं।

इसकी वजह है कि सेवानिवृत्ति, वैवाहिक जीवन के कई पहलुओं में बदलाव ले आती हैं और कई चीज़ें खुद को भी बदलनी पड़ती है।

अमेरिका, यूरोप और जापान में “सेवानिवृत्त पति सिंड्रोम (रिटायर्ड हसबैंड सिंड्रोम- आरएचएस)” बहुत चर्चित विषय है, यहाँ तक कि इस विषय पर शोध प्रबंध तक लिखे गए हैं। कुछ जापानी महिलाएँ तो अपने सेवानिवृत्त पतियों को “सोधीगोमी” या कि कहे “भारी-भरकम अटाला” तक कहती हैं। अमेरिकी और यूरोपीय महिलाओं के पास भी इसके लिए ऐसा ही कोई शब्द होगा। पुरुष के सेवानिवृत्त होने के बाद दोनों के लिए जीवन बदलता है और सेवानिवृत्ति के बाद के पहले कुछ वर्षों में ही कई महत्वपूर्ण बदलाव करने पड़ते हैं।

अब यह बात असामान्य नहीं रही कि जो दंपत्ति अपने कामकाजी जीवन में साथ रहते थे उन्होंने बुढ़ापे में "ग्रे" तलाक का निर्णय ले लिया हो। जिन समस्याओं को आम तौर पर “काम के नाम पर” दरकिनार कर दिया था अब उनके फन उभरने लगते हैं क्योंकि अब पर्याप्त समय होता है और दंपत्ति जानते हैं कि उनके पास इन समस्याओं से दो-चार होने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं बचा है।

यदि आप झटपट यह जानना चाहते हैं कि आप और आपका साथी एक-दूसरे के कितने अनुकूल हैं, तो एक-दूसरे के साथ सप्ताह के सातों दिन, 24 घंटे साथ रहकर देखिए। समस्याएँ ख़ुद-ब-ख़ुद मुँह-बायें खड़ी होने लगेंगी। यही वह परीक्षा है जिसका सामना दंपत्तियों को आम तौर पर सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद करना पड़ता है। जिन सालों में पति-पत्नी ने स्वतंत्र जीवन शैली को जीया था उसकी तड़प उन्हें उस दिन होती है, क्योंकि उन्हें इस सच्चाई का सामना करना पड़ता है कि उन दोनों के बीच कुछ भी समान नहीं है। पूरे वैवाहिक जीवन में वे आपस में कोई भी समान रूचि पैदा करने में नाकाम रहे हैं- उन्होंने आपसी सामंजस्य को बनाने के लिए कुछ नहीं किया होता। आपसी सम्मान और संवेदनशीलता पर कोई रिश्ता खड़ा करने की बजाए उन्होंने एक-दूसरे की भावनाओं को नज़रअंदाज़ किया और वैवाहिक जीवन को ही पूरे जीवनभर के लिए खो दिया।

हाल ही में सेवानिवृत्त हुए एक दोस्त ने टिप्पणी की, “सेवानिवृत्ति से पहले मेरी पत्नी मुझसे मदद माँगती तो मैं अनिच्छा से उसका काम करता था। अब वह कहती है कि मुझे क्या करना चाहिए क्योंकि मेरे पास करने के लिए और कुछ नहीं है और उसका ऐसा कहना मुझे बहुत बुरा लगता है।”

किसी महिला के नज़रिए से देखे तो वह कहेगी, “आपके पति की सेवानिवृत्ति के बाद, मानो आपको दोगुना पति मिल जाता है, और वेतन आधा।” यह बहुत ही हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहा गया वक्तव्य है। जबकि एक वृद्धा ने कहा, “कभी-कभी मैं सुबह झुंझलाहट के साथ उठती हूँ। किसी दिन मैं पति को सोने देती हूँ!”

मैंने अपने उन दोस्तों के सामने, जो अभी-अभी सेवानिवृत्त हुए, जिस सबसे बड़ी चुनौती को देखा वह है समय, जिसे उन्हें अपने जीवन साथी के साथ बीताना था। अधिकांश युगलों में जिनकी शादी को अभी तीन दशकों से कुछ अधिक हुए हैं, उन्होंने जीवनसाथी के साथ जो पहले समय बीताया था वह तब था, जब बच्चे साथ में थे, ऐसा तब तक रहा,जब तक बच्चे महाविद्यालय या काम की वजह से कहीं और न चले गए हो, पर उसके बाद भी वे उसी वक्त साथ होते थे जब फुर्सत के पल हो जैसे सुबह की चाय का समय या रात्रि के भोजन का समय। ध्यान दीजिए, शादी के लगभग तीन दशक बाद आप दोनों में से कोई भी इस स्थिति में नहीं है कि दूसरे इंसान की विचार शैली को बदल सके या बदलने की कोशिश तक कर पाए।

पूरा दिन घर पर रहकर बिताने का विचार करना भी एक चुनौती है, जिसे सोचना भी दुर्गम लगता है। आप दोनों एक दूसरे के साथ दिन के 24 घंटे कैसे बीता सकते हैं, वह भी एक ही जगह रहकर और तब भी कोशिश करें कि एक-दूसरे के पास खुद की एकांत की पर्याप्त जगह हो।

मैंने पति-पत्नी दोनों के मुँह से कई बार यह आम बात सुनी है कि “पता नहीं, हम लोग सेवानिवृत्ति के बाद कैसे जी सकेंगे।”

आप दोनों के बीच यह समायोजन बैठा पाना एक चुनौती है, जिसके पार करना होगा। यदि आपका जीवनसाथी कामकाजी है और अभी तक सेवानिवृत्त नहीं हुआ है, तो आपको कुछ और घरेलू जवाबदारियों संभालने की तैयारी दिखानी होगी। यदि वह कामकाजी नहीं है तो घर के उसके कुछ कामों में हाथ बँटाना होगा, जो हो सकता है आपने पहले कभी न किए हो। युगलों को पता चलता है कि वे एक-दूसरे के उतने अनुकूल नहीं है जितना उन्हें पहले लगता था क्योंकि उन्हें अब पूरे दिन एक-दूसरे का सामना करना पड़ता है।

मेरी पत्नी ने पूछा, "आज आप क्या कर रहे हो?"
मैंने कहा “कुछ नहीं "
उसने पूछा, "जो कल कर रहे थे उसका क्या हुआ"
मैंने कहा, "वह अभी तक पूरा नहीं कर पाया"

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मानसिक स्वास्थ्य के लिए सामाजिक तौर पर जुड़े रहना बहुत ज़रूरी है। अधिकांश सुखी सेवानिवृत्त दंपत्ति वे देखे गए हैं जो कई दोस्तों के साथ बड़ी सक्रियता से अपना सामाजिक जीवन गुज़ारते हैं। महिलाएँ इसे बड़ी आसानी से अपना लेती है और वे आम तौर पर समाज से अधिक जुड़ी भी होती हैं, उनके दोस्तों और परिवार के साथ भावनात्मक संबंध बनिस्बत अधिक मज़बूत होते हैं। पुरुषों के लिए महिलाओं की तुलना में सेवानिवृत्ति के बाद का जीवन अधिक कठिन होता है, इसकी एक प्राथमिक वजह तो यह है कि वे जीवन के शुरुआती समय से ही कभी गहराई से रिश्ते निभाने को लेकर अधिक चिंतिंत नहीं होते। पुरुष सेवानिवृत्ति के बाद सामाजिक बने रहने के लिए अपने साथी पर अधिक निर्भर रहते हैं और बहुत हद तक वे इसकी ऐसी माँग भी करते हैं।

अपने पूरे कामकाजी जीवन में आप दोनों अपने काम और बच्चों से बेहताशा घिरे रहे होंगे। पहला बदलाव तो आपको तभी दिखाई देगा जब आपके बच्चे स्कूली पढ़ाई के बाद घर के बाहर कदम रखेंगे। चाहे वे आपके ही देश के किसी महाविद्यालय में पढ़ने के लिए जाएँ या विदेश जाएँ, इतना तो तय है कि उन्होंने घर से उड़ान भर ली है और वे अपने जीवन में आगे बढ़ने लगेंगे। यह पहला समायोजन है जिससे अधिकांश दंपत्तियों को आगे जाना पड़ता है क्योंकि अब वे भी ऐसे माँ-बाप हो जाते हैं जिनके बच्चे बड़े होकर उनसे अलग हो गए हो, “खाली नस्ल” बनने की आशंका को झुठलाया नहीं जा सकता। हालाँकि अपने व्यस्त कार्यकाल और सामाजिक तानेबाने में आप दोनों इस बदलाव को आसानी से पार कर जाते हैं।

दूसरा बड़ा बदलाव तब होता है जब आप सेवानिवृत्त होते हैं। अचानक आप दोनों घर पर होते हैं और जब कई बदलावों के अनुरूप खुद को ढालने की कोशिश में होते हैं तब आप दोनों अपने रिश्ते में भी कुछ जगह तलाशते हैं। आप दोनों के बीच जितने भी मसले रहे हो उन्हें भूल जाइए और अपने जोड़ीदार को अपने आगे के पूरे जीवन के साथी के रूप में देखिए। किसी दूसरे साथी को खोजना जो आपके हर पागलपन और ग़लतियों को स्वीकार करने की तैयारी रखें और आपके साथ एक ही छत के नीचे रहने के लिए तैयार हो, काफी मुश्किल है।

योजना बनाइए,लेकिन योजनाओं की अति मत कीजिए न ही अपने या एक-दूसरे के रोज़मर्रा के जीवन में भारी फेर-फार कीजिए। थोड़ा समय खाली छोड़ दीजिए, शायद कुछ अप्रत्याशित हो जाए या फिर कभी कहीं यूँ ही घूमने निकल जाइए।

इससे आप वास्तव में अपने सेवानिवृत्त साथी के अपने आस-पास के साथ को पसंद करने लगेंगे और अगले कई सालों तक उसके साथ की चाहत को बरकरार रख पाएँगे।

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(लेखक गार्डियन फार्मेसीज के संस्थापक अध्यक्ष हैं। वे ५ बेस्ट सेलर पुस्तकों – रीबूट- Reboot. रीइंवेन्ट Reinvent. रीवाईर Rewire: 21वीं सदी में सेवानिवृत्ति का प्रबंधन, Managing Retirement in the 21st Century; द कॉर्नर ऑफ़िस, The Corner Office; एन आई फ़ार एन आई An Eye for an Eye; द बक स्टॉप्स हीयर- The Buck Stops Here – लर्निंग ऑफ़ अ # स्टार्टअप आंतरप्रेनर और Learnings of a #Startup Entrepreneur and द बक स्टॉप्स हीयर- माय जर्नी फ़्राम अ मैनेजर टू ऐन आंतरप्रेनर, The Buck Stops Here – My Journey from a Manager to an Entrepreneur. के लेखक हैं।

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