(लेखक:- अनिल कार्की , साभार- नैनिताल समाचार )
बचपन में ठुल दा के साथ हल जोतते हुए भौत बार भिमल के लचकिया सिकड़े से पीठ की मालिश हो जाया करती थी। पहले बाज्यू, फिर ठुल दा हल जोतने लगा। जब वह भर्ती हुआ तो दो तूल हल मैने भी बाया। लेकिन उसके बाद मैं भी गाँव के स्कूल से पिथौरागढ़ आ गया। फिर कभी बताल के बखत गाँव की तरफ लौटना न हुआ। सारा लाजम ईजा ही संभालती रही और बल्द जोतने का ठेका शिवदा को दे दिया। हम कभी-कभार गौं गये तो शिवदा के साथ हल पकड़ कर ‘ह ह’ कर देते थे बस। बाज्यू ने सिखाया था कि जिम्दार के खेत बंजर नी रहने चाहिए। धरती माता शाप देती है। इसलिए वो जब तक जिन्दा रहे, मर-तर कर हल जोतते रहे। ईजा ने कहा जब तक प्राण हैं तब तक मैं जमीन को बंजर नी होने दूँगी। ईजा के हठ के आगे हम दोनों भाई भी मजबूर होकर काम करते रहे और अभी भी कर रहे हैं।
इस बार ठुल दा को छुट्टी नहीं मिली तो मुझे ईजा का फोन आया, ‘‘कब आ रा है घर ?’’ मैने कहा, ‘‘अभी तो कुछ विचार जैसा ही नी है।’’ तो दूसरी तरफ से आवाज आयी, ‘‘विचार ही करो तुम लोग बस। मुझे ही बाँध ले जाना है शैद तिथान में इस लाजम को। तुम लोग तो सब बणी गये हो। देप्त बिगड़ गया है शैद, तभी बिरबुती रखे हो।’’
दूसरे दिन चुपचाप पिथौरागढ़ की तरफ चल दिया। पिथौरागढ़ में काव्य-गोष्ठी थी, उसमें कविता पढ़ी और अगले दिन रात्तिब्यान ही आँगन में पहुँच गया। ईजा तो खेत जा चुकी थी। द्वारों पर साँकल लगी पायी। बकरियों के बच्चों ने आँगन में खूब उछल-कूद मचा रखी ठैरी। साँकल खोल, झोला चाख में रख कर सीधे खेत ही चला गया। बुति-धानि की बाताल आई ठैरी गाँव में। हम जैसे फसकिया लोगों के लिए किसको टैम। खेत में पहुँच कर ईजा पैलाग कहा, तो उसने ‘जी रौ’ कहते हुए शिवदा से कहा- ‘‘ए शिबु झट घड़ी टेकी जा रे,’’ और मेरी और मुड़ कर कहा, ‘‘जा बल्द पकड़।’’ मैं ज्यों ही आगे बढ़ा कि शिवदा ने कहा, ‘‘काखी अब इतना पढ़-लिख कर बल्द जुतवाओेगी क्या भाया से?’’ ‘‘किसने कहा रे कि पढ़-लिख कर बल्द नी जोतते, तब तो पढ़-लिख कर खाते भी नी होंगे।’’
शिव दा ने दोरन्त दिया, ‘‘अब तो भूल भी गया होगा भाया बल्द जोतना।’’ ईजा ने मेरी ओर प्रश्नभरी नजरों से देखा तो लगा जवाब देना चाहिए। मैंने कहा, ‘‘नी नी भूला नी हूँ, क्यों भूलूँगा?’’ मैंने ईजा की तरफ बिना देखे ही ये बात कही थी, पर जानता हूँ उसके चेहरे पर क्या भाव रहे होंगे उस बखत। बारह बजे तक जुताई हुई। शिव दा ने कहा, ‘‘अब खोल देते हैं बैल। टैम हो गया है, भाया भी थक गया होगा।’’ बैलों को खोलने वाले विचार से तो ईजा सहमत दिखी, पर मेरे थकने वाले विचार पर उसने फिर कहा, ‘‘सत्तर साल से मैं नी थकी तो ये कैसे थक सकता है ?’’ उस बखत ईमान से मुझे पंजाबी कवि अवतार सिंह संधू ’पाश‘ की ये पंक्तियाँ याद है ।
पहले खूब बैल थे गाँव में। अब जमा पाँच हल बल्द रह गये हैं। इतने बड़े गाँव की जुताई का पूरा जिम्मा इन बैलों के कन्धे पर है। बैल भी उदास, भूखे-प्यासे और मरियल ही लगे। पैले तो वो बैल शुभ माना जाता था, जो दैं खेल कर अपने सीगों में मिट्टी लगा कर घर लौटता था। अब उत्तराखण्ड के मैंस ही गल्या बल्द हो गये हैं तो जानवरों से दैं खेलने की उम्मीद करना बेमानी है।
बैल भी हाल के हल गए थे लेकिन लगते थे, जैसे न जाने कितने बूढ़े। न सर पर फुन्ने, न सिंगों पर तेल, न ही कमर में जुडि़। कहाँ हरा गया होगा हमारे गाँव का रस, जबकि अभी वहाँ उतना पलायन भी नहीं हुआ है ? पहले तो बाज्यू कहते थे बल्द तो किसानों की शान होते हैं, इनके पेट नी पड़ने चाहिए। हमारे घर में जौं, मंडुआ और भट्ट एक में मिला कर आटा पीसा जाता था और फिर उसमें पीना (सरसों की खली) मिला कर खिलाया जाता था। तब इतने तगड़े बैल होते थे कि दो बेंत का चौड़ा नस्यूड़ा चार स्यु में पूरा खेत जोत जाता था। अब आजकल के बैल तो अच्छे से हल भी नी खींच पा रहे, न ही वैसे तजुर्बेदार हलिये मिट्टी की नब्ज पकड़ सकें। हाईस्कूल पास लड़के हल का हतिन्ना पकड़ने में कतराते दिखे। पिथौरागढ़ कालेज में बी.ए. कर रहे बच्चों को लगता है कि पढे़-लिखे को हल नहीं पकड़ना चाहिए। ये काम तो अनपढ़ गँवारों का काम है। फिर भला देश-प्रदेश गये लोग जो क्यों अपने खेतों की सुध लें ? पता नहीं पहाड़ के मैस कितने जो वेल एजुकेटेड हो गये हैं हमारे। बामण तो पहले ही हल से कतराने वाले ठैरे। खसिये तो हाल के वर्षों तक बैल जोत रहे थे अब लगभग सभी छोड़ रहे हैं। जो गरीब-गुरबे रह गये हैं, वही लोग हल जोत रहे हैं।
हल को गरीबी और अछूत समझने के पीछे जहाँ एक ओर पहाड़ी सामंती अभिजात चरित्र है, वहीं हाल हाल का बाजार और भूमण्डलीकरण के तीखे प्रभाव ने इसे हवा दी है। जहाँ एक तरफ हम फल और फूल उगाने वाले किसान के बारे में कभी-कभार अख़बारों में सचित्र खबर पढ़ लेते हैं, वहीं गम्भीर खाद्यान्न उगाने वाले किसान लगातार हाशिये पर धकेले गये हैं। नगद पूँजी कमाने और बाजार की चकमक से कौन बच सका है भला, फिर पहाड़ में तो बहुत कम जमीनें हैं। पर कई-एक सेरों में अच्छा नाज हो जाता है। लेकिन अब तो कई पहाडि़यों ने गाँव से अपना देवता भी शहर सार दिया है। लिंटर वाले मकान के सबसे ऊपर देवता थाप कर वहीं हो रही है देवता की भी मान-मिन्दी। सही ठैरा जब देश के सारे नेता और बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकारों के लिए देश बराबर दिल्ली और राज्य बराबर देहरादून हो गया है तो बेचारे उस लाटे देवता ने जो क्या बिगाड़ा।
बामन बुबू ने मरियल बैलों और हलियों की अकड़बाजी से परेशान होकर नया ‘हाथ ट्रैक्टर’ गाँव पहुँचाया है। बामन बुबू का कहना है, ‘‘नाती कौन कचकच सुने इन लोगों की, चाय पीकर गिलास तक नहीं धोते। उल्टा इनके नखरे सहो। ये हाथ टैक्टर चीज है, जै हो विज्ञान देवता की।’’
मैने पूछा कितने का पड़ा आपको ? तो बोले- ‘‘वैसे तो एक लाख बीस हजार का है, सब्सिडी में अस्सी हजार बैठा।’’ इतने में ईजा सुबह का कल्यो लाकर खेत आ गई और हाथ ट्रैक्टर को देखकर बोली, ‘‘दिगो बामणज्यू, तुम्हारी बैल की हल तो भौत अच्छी है ‘डिजल’ से चलने वाली। पंडित जी ने हँसते हुए कहा, ‘‘होय पाँच लीटर में चार घण्टे चल जाता है। पल्ले गाँव किराये पर दिया था वापस ला रहा हूँ।’’ मैं चौंका। मैंने पूछा, ‘‘किराये पर ?’’ तो शिव दा ने कहा, ‘‘हाँ भाया किराये पर दे रहे हैं गुरू ट्रैक्टर को।’’ मंने शिवदा से न पूछ कर सीधे गुरू से ही पूछा, ‘‘कितने पैसे में दे रहे हो ?’’ ‘‘चार सौ रुपये में सात बजे से लेकर बार बजे तक।’’ कहते हुए उन्होंने ट्रैक्टर स्टार्ट किया तो मैंने चुटकी लेकर कहा, ‘‘गुरू हल तो हल ही हुआ, लकड़ी का हो या लोहे का। कहीं आपके जजमान आपको हलफोड़ कहना शुरू न कर दें, खबरदार रहना।’’ एक घड़ी रुककर बोले, ‘‘जब इसमें जुताई वाली ‘फार’ लगाते हैं उस वक्त मैं इसमें हाथ नी लगाता। केसरी ही (मजदूर) जोतता है।’’
उनके जाने के बाद शिवदा ने उस ट्रैक्टर की कमियाँ (बुरायी) बतानी शुरू कीं, ‘‘भाया बल्द तो बल्द ही हुए। जो बात इस जुताई में है वो इस ट्रैक्टर में नहीं। फिर ये ट्रैक्टर आल-चाल, कन्सी-डिबाई नहीं लगने ठैरा। जुताई के बाद फिर कस्सी से आल-चाल सुधारने हुए। सभी जो ट्रैक्टर वाले हो जायेंगे तो बल्द किस काम आयेंगे ?’’ मैंने कहा, बात तू ठीक कह रहा शिवदा। पर विज्ञान भी तो कोई चीज है, आम आदमी का फायदा तो होने वाला ठैरा इसमें।’’
हल जोतते हुए शिवदा ने बल्द रोक दिये और गुस्से से बोला, ‘‘भाया अस्सी हजार का विज्ञान खरीदने की अपनी औकात नी हुई रे। ये तो कोई पैसे वाला ही खरीद सकता है। फिर क्या आम आदमी का फायदा हुआ इसमें ? हमारे पेट में तो पड़ गई ना लात।’’ फिलहाल मेरे पास शिव दा के इस सवाल का उत्तर नहीं था। मैं अवाक् रह गया। शिवदा ने पूरे जोर से बैल की पीठ पर भिमल का लचकदार सिपका जमाया और बैल तेजी से हल खींचने लगे। इस सड़ाक्क से मुझे अचानक ठुल दा याद आ गया।