Friday, December 15, 2017

आफनो माटोमा आफ्नै बाल्यकाल

( साभार - डा अनिल कार्कीको संस्मरणहरुबाट )
अगास में पंछी रिटो धर्ती पड़ी छाया
जसि तेरी पानी तीस उसी मेरी माया
 सब किसी न किसी तंग दर्रे में ही पैदा हुए। वह तंग दर्रा संर्कीणताओं का भी हो सकता है। अन्धविश्वासों का भी हो सकता है या कि वह गरीबी और फटेहाल हालातों का तंग दर्रा भी हो सकता है। हम जब तंग दार्रों से खुले अकाश में आते हैं। तब तंग दर्रे हमें किसी रोमांचक अनुभव से भर देते हैं। पंछियों से हमारे मन ने उड़ना सीखा है। किसी लोकगायक ने इस पर क्या अद्भुद कहा है।
आसमान उड़न्या पंछी पानी पिन्या रैछ
मैं ज कूँ छ्युँ दिन जानान उमर जान्या रैछ।
(आसमान में उड़ने वाला पंछी भी पानी पीने के लिये धरती के पास ही उतरता है ओह मैं समझता था दिन गुजरते है पर असल में हम सब की उम्र गुजर जाती है)
पंछियों के बहाने हमने भी कई उड़ानें भरीं। जीवन के पाठ पढ़े । जिन पंछियों से मैंने बचपन में संवाद किया है। मैं, कभी-कभी उन पंछियों की आवाजें सुन के आज भी ठिठक जाता हूँ। आज मैं उन पंछियों के बारे में बात करूँगा जो कहीं स्मृतियों में बैठ गये हैं। पहली स्मृति बहुत बालपने है। ईजा अपने पैरों पर बैठा के लौरी गा रही है। लौरी में एक पंछी का जिक्र आता है।
घूघूती बासूती
आम् का छ
भाड़ मे छ
(ओ! घुघूती बास तो तू/और बता आमा कहाँ है? /भाड़ में है ।)
पहला गीत हम पहाड़ी या हिमाली लोगों ने शायद घुघूती पर यही सुना होगा। क्योंकि घुघूती से हमारा बचपन, जवानी और बुढ़ापा जुड़ा है। आप पूछेंगे कैसे? बचपन में हम घुघूती पर लौरी सुनते थे। जवानी में घुघूती के बहाने अपने प्रिय को याद करते । लोकगायक गोपालबाबू गोस्वामी का यह गीत याद तो है ना?
घुघूती न बासा
आमाकी डाई में
घुघूती नी बासा
तेरी घुरघुर सूणी
मैं लागो उदास
स्वामी मेरा परदेश
बर्फिला लदाख
घुघूती नी बासा
यानि कि ओ! घुघूती मत बोल। आम की डाली में बैठ कर/तेरी घूर-घूर सुन के / मुझे उदास लग जाता है/ मेरे स्वामी इस समय नोकरी पर है / बर्फीले लद्दाख में। घुघूती पर एक मार्मीक गढ़वाली गीत भी है। इस गीत में एक स्त्री घुघूती को याद करते हुए चैत का माह याद करती है। अपने पिता का घर याद करती है।
घूघूती घूरूण लैगी मेरा मैत की
बौड़ी बौड़ी आग्ये रितु रितु चैत की।
(मेरे मायके की घुघूती बोलने लगी है कि आ गई रितु चैत की)
हमारे यहाँ बुढ़ापे में जब कोई बहुत कमजोर हो जाता है । उसके बाल सफेद हो जाते हैं सा सूख उसकी गर्दन पतली हो जाती है। वह कृशकाय दिखने लगता है तो उस उससे कहते हैं, “देखो! घुघूत जितना रह गया है” (जब घुघूती अण्डे सेती है तो मरगिल्ली सी हो जाती है उसी का संन्दर्भ ले कहते होंगे) फिर वह पुसुड़िया उत्तरायणी में का त्यार (त्यौहार) याद आ गया। घुघूते उड़ाने का उत्साह तो अजब-गज्जब था। अलसुबेर चार बजे नहा धो के झन्नाटेदार ठण्ड में कौवे बुलाने लगते।
काले कौवा का का
पूसकि रोटी माँघै में खा
ले कौवा भात मै दे सुनु की थात
ले कौवा पुरी
मै दे सुनु की छुरी
ले कौवा लगड़
मै दे भ्ये बैणियों क् दगड़
ले कौवा बड़ो
मै दे सुनु को घड़ो
ले कौवा क्वे
मै दे भलि ज्वे
(कोले कौवा का का । आजा! पूस की रोटी माँघ मे ही खा जा। ले खा भात, मुझे दे बदले में सोने की थात। ले यह पूरी, मुझे बदले में दे सोने की छुरी। ले खा ले लगड़, बना रहे भाई बहनों का दगड़ (साथ)। ले कौवा बड़ा ले, बदले में सोने का घड़ा दे। ले कौवा क्वे, बदले में दे मुझे अच्छी सी ज्वे । यानी कि अच्छी पत्नी या पति )
बचपन में, मैं एक सवाल सभी से पूछता था। “घुघूते ही क्यों उड़ाते हैं कोई दूसरी चिड़िया कयों नहीं?” तो घर वाले या बड़े-बुजुर्ग कहते, “क्योंकि घुघूते पवित्र होते हैं।” मेरी जिज्ञासा यही पर दम तोड़ देती । मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि हमारे लोक में घुघूती जैसे सरल पंछी के प्रतीक को कौवे को खिलाने का क्या मतलब रहा होगा । जो भी मतलब रहा हो पर कौवा जब जूठा करके घुघूते छोड़ जाता तो गाँव के बड़े बुजुर्ग कहते, “इस झूठे को गर्भवती भैंसों व गाय को खिला दो ।” उनकी उटपटाँग धारणा थी इसे खाने के बाद जानवर मादा संन्तान ही पैदा करते हैं। कौवे को लेकर बड़ी रहस्यमय और रोमांचक बातें हमने बचपन में सुनी थी। जैसे, अगर कौवा आँगन में बैठ के काँव-काँव करने लगे तो वह यह बता रहा कि कोई प्रिय मेहमान आने आने वाला है। जब भी कौवा आँगन में बैठता तो हम चिल्ला उठते
साँचि छै सर
झुठि छै मर।
यानि कि, साँच है तो जा उड़कर दूसरी जगह जा और झूठा है तो मर जा। इसके विपरित यदि वह कड़ाती (कर्कश) हुई ध्वनि निकालता तो सब उसे भगाने लगते यह किसी बुरी खब़र का प्रतीक माना जाता । हमारे प्रवासी पहाड़ियों के लिये एक कहावत है जब वे परदेश में होते और उन्हें अपने देश का कौवा भी दिख जाये तो वह भी उन्हें लाडला लगता है। मैंने एक बार एक रूसी उपन्यास ’पराजय’ में छापामार यु़़द्ध के बाद अनाज को छोड़ कर भागे ग्रामीणों के खेतों में कौवे का अद्भुद चित्रण पढ़ा। मैं जब भी कौवा देखता हूँ इस उपन्यासकार को जरूर याद करता हूँ। उम्मीद करता हूँ कि कभी मैं भी कोई ऐसा ही अमिट चित्र गढ़ सकूँगा। बचपन में दूर आसमान में उड़ रहे चील से जिसके फैले डैने विशाल हाथों से लगते थे। उन डैनों के अगले हिस्से ठीक अंगुलियों की तरह होते। जैसे ही वो हमें दिखता हम चिल्लाते
अरे ओ ! चिलड़ी मुनड़ी हल्कै दे। ओ!
चील अपनी अंगुली में पहनी मुनड़ी तो हिला दे। वह सुनता था या नही पर जैसे ही हम यह कहते वह अपने डैनों को झ्याप-झुप्प से खोल-बन्द करता। हम कहते, “देखो उसने सुन लिया और अपनी मुनड़ी हिला दी। कोयल जैसे ही बोलती, “कूहू” हम समझते वह पूछ रही है कि कौन है? हम उत्तर देते, “अरे। हम है।” वह पिर बोलती, “कूहू” तो हम हड़का के कहते, “मैहूँ” पर कोयल कहाँ चुप रहती वह बोलती जाती और हम कौन कम थे, हम भी उस पर चिल्लाने लगते। वह बोलती “कूहू” तो हम कहते तेरी ईजा (माँ) है। तेरा बाब (पिता) है। इसी तरह जाने क्या अण्ड बण्ड उससे कहने लगते। पहाड़ में जब खेत में नाज पकने को होता है उस समय में एक चिड़िया बोलती है। उसका बोलना इस तरह सुनाई देता है। “बी कूई ग्यो” हम उसका अर्थ इस तरह लगाते थे, ’बीज सड़ गया है’। वह चिड़िया कह रही है, “गाँव वालो जल्दी से नाज समेटो वरना बीज सड़ जायेगा।” बड़े बुजुर्ग भी यही दोहराते थे। पहाड़ों में जब एक पहाड़ी जंगली मीठा फल ’काफल’ पकता है तो एक चिड़िया यों बोलती है “काफल पाक्को” लगतस है जैसे कह रही हो काफल पक गया है। जैसे ही वह बोलती हम उसे पलट जवाब देते “मैले नै चाख्खो” मतलब कि अभी मैंने नहीं चख्खा है और तू कह रही काफल पक गया है।
इस तरह के सैकड़ो पंछीयों से हम झगड़ते और संवाद करते। उनसे रूठते और उन्हें मनाते थे। क्या अजीब दौर है यह, हमने तो जैसे अपने बच्चों घरनुमा जेल में कैद ही कर दिया है। अब उन पर आरोप कि वे कार्टून देखने से बाहर ही नहीं निकल पाते। रात दिन टीवी से चिपके रहते हैं। दरअसल बच्चांे पर यह आरोप गलत है यह गुनाह हम बड़ों से हुआ है हम इसके दोषी है। क्योंकी हमने उन्हे प्रकृति से संवाद कर सकने की कला नहीं सिखाई। हमारी इस गलती को भविष्य के गंभीर नागरिक कभी माँफ नहीं करेंगे। वे अपनी काग़ज की डीग्रियाँ फाड़ कर एक दिन पूछेंगे कि हमको अपना बचपन क्यों नहीं जीने दिया गया? क्यों नहीं करने दिये गये पेड़, पहाड़, पंछी, पानी-नदी-सागर से हमें संवाद। क्यों हमें केवल रट्टू तोता बनाया गया। तब आप क्या कहेंगे? खैर आप भी क्या कहेंगे, मध्यवर्ग की दुहाई देने के अलावा। अब अन्त में एक लोककथा जो एक ऐसी पहाड़ी स्त्री की है जो कई जानवरों के साथ ही कागभक्या (कौवे की भाषा) जानती थी। वैसे मैंने एक तांत्रिक के पास कौवे का कटा पंजा देखा था। कौवे के पंजे इतने लचीले होते हैं कि वो तांत्रिक उस कटे पंजे से सबको ठगा करता था, “यह कौवे का पंजा आपकी अंगुली पकड़ के मुझे बतायेगा कि अपका भाग्य कैसा है?” मैंने कौवे के पंजे की पकड़ का कारण लोगों को समझाकर उस तांत्रिक की रोटी बन्द करवा दी थी । ओह वह कागभाषा जानने वाली औरत की कहानी ।
एक आदमी की शादी हुई। जैसे ही वे दोनों शादी से निपट के, कपड़े बदलने लगे दुल्हन अपने झुम्मर-झुमके उतारने को कान में हाथ लगा के रिंग घुमा रही थी कि ठीक उसी समय कहीं दूर शमशान में एक सियार बोला। दुल्हन का हाथ अचानक ठिठक गया। आदमी बोला, “क्या हुआ?” दुल्हन ने कहा, “मुझे थोड़ी देर के लिये बाहर खुली हवा में जाना है अकेले ” यह सुन के आदमी ने कहा, “ठीक है जाओ!” उस आदमी ने दुल्हन को जाने दिया पर चुपके से वह भी पीछे पीछे उसके साथ बारह निकल गया। जिस तरफ से सियार की आवज आ रही थी दुल्हन उसी ओर चली जा रही थी । आदमी अचानक चैंका, “यह क्या यह तो शमशान की तरफ जा रही है।” आदमी घबरा गया उसने देखा कि दुल्हन सियार के सामने वैसे ही हूँक रही है जैसे सियार हूँकता है। दुल्हन सियार के साथ पास ही रखे एक मुर्दे पर झुक गई । यह देख के आदमी डर के मारे थर-थर काँपने लगा । दुल्हन उस मुर्दे के पैरों के पास देर झुकी रही। फिर हाथों के पास, फिर छाती के पास, कान के पास। वह कुछ देर में उठ खड़ी हुई और सियार ने उस मुर्दे को खाना शुरू किया। दुल्हन ने अपना पल्लू ठीक किया और वह लौट आई यह सब आदमी देखता रहा। वह उसके पीछे पीछे घर आया । दुल्हन सबसे पहले जानवरों के गोठ (जहाँ जानवर बाँधे जाते हैं) में गई वहाँ दिवार पर बने फलिण्डे पर उसने कुछ रखा और और फिर कमरे में आई तो देखा कि आदमी थर-थर काँप रहा है। उसने एक नज़र दुल्हन को देखा और फिर भाग के अपने पिता के पास चला गया। बूढ़े पिता से उसने कहा, “पिता कैसी दुल्हन लाये आप मेरे लिये । वह ता नरभक्षी है । अभी अभी मैंने उसे सियार से बात करते हुए सुना। उसने शमशान में सियार के साथ मिलकर एक मुर्दे को खाया। यह सुन बूढ़ा बोला, “मैं कल ही इसे इसके पिता यहाँ छोड़ आऊँगा तू चिंता न कर।“ दूसरे दिन बूढ़़ा ससुर दुल्हन को लेकर वापस उसे उसके पिता के घर छोड़ आने को चल पड़ा। चलते-चलते जब वे थक गये तो वह एक छायादार पीपल के पेड़ की जड़ पर बने चबुतरे पर बैठे गये। पेड़ पर एक उड़ता हुआ कौवा आया और और काँव काँव करने लगा । दुल्हन समझ गई कि कौवा क्या कह रहा है? पर उसने कौवे की बात को अनसुना किया । जब कौवा जिद करने लगा तो वो अचानक बोल पड़ी, “तिरिया बोली ये गत भई, तू क्या बोले काग।” यह सुन के बूढ़ा ससुर ठिठक गया। वह बोला, “बहु! बात क्या है? क्या तू कागभाषा जानती हैं?” यह सुनकर बहु बोली “कल रात सियार बोला, “कोई मेरी बात समझ समझ सकते तो मेरी एक मदद कर दो, शमशान में एक लाश आई है। उसके पैरों से लेकर गले तक गहने है। तुम इन गहनों को खोल के ले जाओ और लाश मेरे लिये छोड़ जाओ।“ यह सुन कर मैं शमशान गयी और गहने ले आई जो मैंने बकरियों के गोठ के फलिण्डे पर छुपा दिये। पर तुम्हारे बेटे को लगा कि मैं उस लाश को पर झुक के उसे खा रही थी।” ससुर यह सुन कर और आश्चर्य में डूब गया। वह बोला, “अभी यह कौवा क्या कह रहा है?” तब दुल्हन ने बताया, “वह कह रहा है, ओ स्त्री! मेरी एक मदद कर दे, जिस पत्थर पर तू बैठी उसके दो हाथ नीचे एक सोने का घड़ा मिट्टी में दबा है। तू उस घड़े को निकाल ले जा, पर उस घड़े के मुँह में एक मेंढ़क बैठा है। मुझे बहुत तेज भूख लगी है उस मेंढ़क को मुझे दे जा। यह सुन कर बूढ़े ससुर ने पत्थर हटा के मिट्टी खोदनी शुरू की। दो हाथ नीचे उसे सोने के सिक्कों से भरा घड़ा मिला। उस घड़े के ऊपर एक मेंढ़क बैठा था कौवा झपटा और मेंढ़क को ले उड़ा । घड़ा वह वहीं पर छोड़ गया। यह देख के बूढ़ा ससुर खुश हो गया। उसने बहू से माफी माँगी उसे वापस घर ले आया । पहाड़ की लोक कथाओं में, गीतों में या कहावतों में सुनाई देने वाली उक्ति “तिरिया बोली ये गत भई, तू क्या बोले काग।” के पीछे यह रोमांचक कथा छुपी हुई है। ये मुझे भी बहुत बाद में जाकर पता चली । कागा, कोयल, पंछी तो अब गुजरे जमाने की बात हो गई।
एक सूफी सन्त फरीद ने तो जुदाई सह रही नायिका के लिये लिखा था।
कागा सब तन खाइयो
चुन चुन खाइयो मांस
दो नैना मत खाइयो
मोहे पीया मिलन की आश ।
जिसे आप इस समय के प्रचलित एक खूबसूरत हिंदी गीत ’नादाँ परिंदे घर आजा’ में सुन सकते है।
बची रहे आश और बना रहे विश्वास ।

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