संयोजन-ब्लगर,
फोटो सौजन्य-गुगल
जानिए, क्या है
केदारनाथ का इतिहास...
गिरिराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित है बारह
ज्योतिर्लिंगों में सर्वोच्च केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग। केदारनाथ धाम और मंदिर तीन
तरफ पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फुट ऊंचा केदारनाथ,
दूसरी तरफ है 21 हजार 600 फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ है 22 हजार 700 फुट ऊंचा भरतकुंड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पांच नदियों का संगम भी है
यहां- मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा,
सरस्वती और स्वर्णगौरी। इन नदियों में से कुछ का अब अस्तित्व नहीं
रहा लेकिन अलकनंदा की सहायक मंदाकिनी आज भी मौजूद है। इसी के किनारे है केदारेश्वर
धाम। यहां सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में जबरदस्त पानी रहता है।
यह उत्तराखंड का सबसे विशाल शिव मंदिर है, जो कटवां पत्थरों के विशाल शिलाखंडों को जोड़कर बनाया गया है। ये शिलाखंड भूरे रंग के हैं। मंदिर लगभग 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर बना है। इसका गर्भगृह अपेक्षाकृत प्राचीन है जिसे 80वीं शताब्दी के लगभग का माना जाता है।
मंदिर के गर्भगृह में अर्धा के पास चारों कोनों पर चार सुदृढ़ पाषाण स्तंभ हैं, जहां से होकर प्रदक्षिणा होती है। अर्धा, जो चौकोर है, अंदर से पोली है और अपेक्षाकृत नवीन बनी है। सभामंडप विशाल एवं भव्य है। उसकी छत चार विशाल पाषाण स्तंभों पर टिकी है। विशालकाय छत एक ही पत्थर की बनी है। गवाक्षों में आठ पुरुष प्रमाण मूर्तियां हैं, जो अत्यंत कलात्मक हैं।
85 फुट ऊंचा, 187 फुट लंबा और 80 फुट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें 12 फुट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। मंदिर को 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है। यह आश्चर्य ही है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी। खासकर यह विशालकाय छत कैसे खंभों पर रखी गई। पत्थरों को एक-दूसरे में जोड़ने के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। यह मजबूती और तकनीक ही मंदिर को नदी के बीचोबीच खड़े रखने में कामयाब हुई है।
मंदिर का निर्माण इतिहास : पुराण कथा अनुसार हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित है।
यह मंदिर मौजूदा मंदिर के पीछे सर्वप्रथम पांडवों ने बनवाया था, लेकिन वक्त के थपेड़ों की मार के चलते यह मंदिर लुप्त हो गया। बाद में 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने एक नए मंदिर का निर्माण कराया, जो 400 वर्ष तक बर्फ में दबा रहा।
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है। इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था। माना जाता है कि एक हजार वर्षों से केदारनाथ पर तीर्थयात्रा जारी है। कहते हैं कि केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। बाद में अभिमन्यु के पौत्र जनमेजय ने इसका जीर्णोद्धार किया था।
मंदिर के कपाट खुलने का समय : दीपावली महापर्व के दूसरे दिन (पड़वा) के दिन शीत ऋतु में मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं। 6 माह तक दीपक जलता रहता है। पुरोहित ससम्मान पट बंद कर भगवान के विग्रह एवं दंडी को 6 माह तक पहाड़ के नीचे ऊखीमठ में ले जाते हैं। 6 माह बाद मई माह में केदारनाथ के कपाट खुलते हैं तब उत्तराखंड की यात्रा आरंभ होती है।
6 माह मंदिर और उसके आसपास कोई नहीं रहता है, लेकिन आश्चर्य की 6 माह तक दीपक भी जलता रहता और निरंतर पूजा भी होती रहती है। कपाट खुलने के बाद यह भी आश्चर्य का विषय है कि वैसी ही साफ-सफाई मिलती है जैसे छोड़कर गए थे।
यह उत्तराखंड का सबसे विशाल शिव मंदिर है, जो कटवां पत्थरों के विशाल शिलाखंडों को जोड़कर बनाया गया है। ये शिलाखंड भूरे रंग के हैं। मंदिर लगभग 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर बना है। इसका गर्भगृह अपेक्षाकृत प्राचीन है जिसे 80वीं शताब्दी के लगभग का माना जाता है।
मंदिर के गर्भगृह में अर्धा के पास चारों कोनों पर चार सुदृढ़ पाषाण स्तंभ हैं, जहां से होकर प्रदक्षिणा होती है। अर्धा, जो चौकोर है, अंदर से पोली है और अपेक्षाकृत नवीन बनी है। सभामंडप विशाल एवं भव्य है। उसकी छत चार विशाल पाषाण स्तंभों पर टिकी है। विशालकाय छत एक ही पत्थर की बनी है। गवाक्षों में आठ पुरुष प्रमाण मूर्तियां हैं, जो अत्यंत कलात्मक हैं।
85 फुट ऊंचा, 187 फुट लंबा और 80 फुट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें 12 फुट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। मंदिर को 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है। यह आश्चर्य ही है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी। खासकर यह विशालकाय छत कैसे खंभों पर रखी गई। पत्थरों को एक-दूसरे में जोड़ने के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। यह मजबूती और तकनीक ही मंदिर को नदी के बीचोबीच खड़े रखने में कामयाब हुई है।
मंदिर का निर्माण इतिहास : पुराण कथा अनुसार हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित है।
यह मंदिर मौजूदा मंदिर के पीछे सर्वप्रथम पांडवों ने बनवाया था, लेकिन वक्त के थपेड़ों की मार के चलते यह मंदिर लुप्त हो गया। बाद में 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने एक नए मंदिर का निर्माण कराया, जो 400 वर्ष तक बर्फ में दबा रहा।
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है। इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था। माना जाता है कि एक हजार वर्षों से केदारनाथ पर तीर्थयात्रा जारी है। कहते हैं कि केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। बाद में अभिमन्यु के पौत्र जनमेजय ने इसका जीर्णोद्धार किया था।
मंदिर के कपाट खुलने का समय : दीपावली महापर्व के दूसरे दिन (पड़वा) के दिन शीत ऋतु में मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं। 6 माह तक दीपक जलता रहता है। पुरोहित ससम्मान पट बंद कर भगवान के विग्रह एवं दंडी को 6 माह तक पहाड़ के नीचे ऊखीमठ में ले जाते हैं। 6 माह बाद मई माह में केदारनाथ के कपाट खुलते हैं तब उत्तराखंड की यात्रा आरंभ होती है।
6 माह मंदिर और उसके आसपास कोई नहीं रहता है, लेकिन आश्चर्य की 6 माह तक दीपक भी जलता रहता और निरंतर पूजा भी होती रहती है। कपाट खुलने के बाद यह भी आश्चर्य का विषय है कि वैसी ही साफ-सफाई मिलती है जैसे छोड़कर गए थे।
केदारनाथ में क्यों आई तबाही, चार धार्मिक कारण
केदारनाथ की तबाही के बाद लोगों के मन
में कई तरह के सवाल उठने लगे हैं। आखिर केदारनाथ में पहले भी बारिश होती थी, नदियां
उफनती थी और पहाड़ भी गिरतेथे।
केदारनाथ की
तबाही के बाद लोगों के मन में कई तरह के सवाल उठने लगे हैं। आखिर केदारनाथ में
पहले भी बारिश होती थी, नदियां उफनती थी और पहाड़ भी गिरतेथे।
लेकिन कभी भी केदारनाथ जी कभी भी इस तरह के विनाश का शिकार नहीं
बने। प्रकृति की इस विनाश लीला को देखकर कुछ लोगों की आस्था की नींव हिल गई है।
जबकि कुछ आस्थावान ऐसे भी हैं जिनकी आस्था की नींव और मजबूत हो गयी । ऐसे ही आस्थावान श्रद्धालुओं की नजर में केदारनाथ पर आई आपदा के
पीछे कई धार्मिक कारण हैं।
धारी माता की नाराजगी
सोशल मीडिया में इसके कारणों पर जो चर्चा चल रही है उसके अनुसार इस विनाश का सबसे पहला और बड़ा कारण धारी माता का विस्थापन माना जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता उमा भरती ने भी एक सम्मेलन में इस बात को स्वीकार किया कि अगर धारी माता का मंदिर विस्थापित नहीं किया जाता तो केदारनाथ में प्रलय नहीं आती। धारी देवी का मंदिर उत्तराखंड के श्रीनगर से 15 किलोमीटर दूर कालियासुर नामक स्थान में विराजमान था।
धारी देवी को काली का रूप माना जाता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार उत्तराखंड के 26 शक्तिपीठों में धारी माता भी एक हैं। बांध निर्माण के लिए 16 जून की शाम में 6 बजे शाम में धारी देवी की मूर्ति को यहां से विस्थापित कर दिया गया। इसके ठीक दो घंटे के बाद केदारघाटी में तबाही की शुरूआत हो गयी।
अशुभ मूहुर्त
आमतौर पर चार धार की यात्रा की शुरूआत अक्षय तृतीया के दिन गंगोत्री और यमुनोत्री के कपाट खुलने से होती है। इस वर्ष 12 मई को दोपहर बाद अक्षय तृतीया शुरू हो चुकी थी और 13 तारीख को 12 बजकर 24 मिनट तक अक्षय तृतीया का शुभ मुहूर्त था। लेकिन गंगोत्री और यमुनोत्री के कपाट को इस शुभ मुहूर्त के बीत जाने के बाद खोला गया। खास बात ये हुई कि जिस मुहूर्त में यात्रा शुरू हुई वह पितृ पूजन मुहूर्त था। इस मुहूर्त में देवी-देवता की पूजा एवं कोई भी शुभ काम वर्जित माना जाता है। इसलिए अशुभ मुहूर्त को भी विनाश का कारण माना जा रहा है।
तीर्थों का अपमान
बहुत से श्रद्घालु ऐसा मानते हैं कि लोगों में तीर्थों के प्रति आस्था की कमी के चलते विनाश हुआ। यहां लोग तीर्थ करने के साथ साथ धुट्टियां बिताने और पिकनिक मनाने के लिए आने लगे थे। ऐसे लोगों में भक्ति कम दिखावा ज्यादा होता है। धनवान और रसूखदार व्यक्तियों के लिए तीर्थस्थानों पर विशेष पूजा और दर्शन की व्यवस्था है, जबकि सामन्य लोग लंबी कतार में खड़े होकर अपनी बारी आने का इंतजार करते रहते हैं। तीर्थों में हो रहे इस भेद-भाव से केदारनाथ धाम भी वंचित नहीं रहा।
मैली होती गंगा का गुस्सा
मंदाकिनी, अलकनंदा और भागीरथी मिलकर गंगा बनती है। कई श्रद्धालुओं का विश्वास है कि गंगा अपने मैले होते स्वरूप और अपमान के चलते इतने रौद्र रूप में आ गई। कहा जाता है कि गंगा धरती पर आना ही नहीं चाहती थी लेकिन भगवान शिव के दबाव में आकर उन्हें धरती पर उतरना पड़ा। भगवान शिव ने गंगा की मर्यादा और पवित्रता को बनाए रखने का विश्वास दिलाया था। लेकिन बांध बनाकर और गंदला करके हो रहा लगातार अपमान गंगा को सहन नहीं हो पाया। अपने साथ हो रहे अपमान से नाराज गंगा 2010 में भी रौद्र रूप दिखा चुकी हैं जब ऋषिकेश के परमार्थ आश्रम में विराजमान शिव की विशाल मूर्ति को गंगा की तेज लहरें अपने प्रवाह में बहा ले गई थी।
धारी माता की नाराजगी
सोशल मीडिया में इसके कारणों पर जो चर्चा चल रही है उसके अनुसार इस विनाश का सबसे पहला और बड़ा कारण धारी माता का विस्थापन माना जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता उमा भरती ने भी एक सम्मेलन में इस बात को स्वीकार किया कि अगर धारी माता का मंदिर विस्थापित नहीं किया जाता तो केदारनाथ में प्रलय नहीं आती। धारी देवी का मंदिर उत्तराखंड के श्रीनगर से 15 किलोमीटर दूर कालियासुर नामक स्थान में विराजमान था।
धारी देवी को काली का रूप माना जाता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार उत्तराखंड के 26 शक्तिपीठों में धारी माता भी एक हैं। बांध निर्माण के लिए 16 जून की शाम में 6 बजे शाम में धारी देवी की मूर्ति को यहां से विस्थापित कर दिया गया। इसके ठीक दो घंटे के बाद केदारघाटी में तबाही की शुरूआत हो गयी।
अशुभ मूहुर्त
आमतौर पर चार धार की यात्रा की शुरूआत अक्षय तृतीया के दिन गंगोत्री और यमुनोत्री के कपाट खुलने से होती है। इस वर्ष 12 मई को दोपहर बाद अक्षय तृतीया शुरू हो चुकी थी और 13 तारीख को 12 बजकर 24 मिनट तक अक्षय तृतीया का शुभ मुहूर्त था। लेकिन गंगोत्री और यमुनोत्री के कपाट को इस शुभ मुहूर्त के बीत जाने के बाद खोला गया। खास बात ये हुई कि जिस मुहूर्त में यात्रा शुरू हुई वह पितृ पूजन मुहूर्त था। इस मुहूर्त में देवी-देवता की पूजा एवं कोई भी शुभ काम वर्जित माना जाता है। इसलिए अशुभ मुहूर्त को भी विनाश का कारण माना जा रहा है।
तीर्थों का अपमान
बहुत से श्रद्घालु ऐसा मानते हैं कि लोगों में तीर्थों के प्रति आस्था की कमी के चलते विनाश हुआ। यहां लोग तीर्थ करने के साथ साथ धुट्टियां बिताने और पिकनिक मनाने के लिए आने लगे थे। ऐसे लोगों में भक्ति कम दिखावा ज्यादा होता है। धनवान और रसूखदार व्यक्तियों के लिए तीर्थस्थानों पर विशेष पूजा और दर्शन की व्यवस्था है, जबकि सामन्य लोग लंबी कतार में खड़े होकर अपनी बारी आने का इंतजार करते रहते हैं। तीर्थों में हो रहे इस भेद-भाव से केदारनाथ धाम भी वंचित नहीं रहा।
मैली होती गंगा का गुस्सा
मंदाकिनी, अलकनंदा और भागीरथी मिलकर गंगा बनती है। कई श्रद्धालुओं का विश्वास है कि गंगा अपने मैले होते स्वरूप और अपमान के चलते इतने रौद्र रूप में आ गई। कहा जाता है कि गंगा धरती पर आना ही नहीं चाहती थी लेकिन भगवान शिव के दबाव में आकर उन्हें धरती पर उतरना पड़ा। भगवान शिव ने गंगा की मर्यादा और पवित्रता को बनाए रखने का विश्वास दिलाया था। लेकिन बांध बनाकर और गंदला करके हो रहा लगातार अपमान गंगा को सहन नहीं हो पाया। अपने साथ हो रहे अपमान से नाराज गंगा 2010 में भी रौद्र रूप दिखा चुकी हैं जब ऋषिकेश के परमार्थ आश्रम में विराजमान शिव की विशाल मूर्ति को गंगा की तेज लहरें अपने प्रवाह में बहा ले गई थी।
घटनाओं के बारे
मे लोगो कि राय
·
१-हम सभी को ऐसी घटनाओ से सबक लेना होगा
की पाप कहीं भी हो तो भगवन उसमे साथ नहीं देते और उसकी सजा सभी लोगों को भोगनी
पड़ती है; ये इस घोर कलयुग में हो रहे पापों की सजा है अभी भी संभल जाएँ वर्ना
इससे भी भयानक प्रलय हो सकती है '
·
२-शिर्फ़ भक्ति मैं ही शक्ति है आत्मा की
सन्तुष्टि ही विश्वास है, भाग्य विधाता की दें है.
·
३-ये सब प्रकृति की देन ह इस के आगे
सोचना बहम है और बहम का कोई इलाज़ नहीं है। आग , तूफान और पानी के आगे कुश नहीं
बचता, जब बादल फटा तो किस बाबा को दोष दो गे, और सच बोलें तो सब से जादा बिनाश
राजनितिक पार्टियाँ ही कर रहीं हाँ चाहे बीजेपी हो या कांग्रेस, अब आप किस्सी आपदा
को धार्मिक से न जोड़ें तो आशा होगा, आपदा कहीं पर भी आ सकती है अब हिमाचल में बादल
फटा तो किस बाबा को दोष दो गे I इस के लिय हम और आप सब दोषी हें, कभी आप ने नजर
डाली है जब दिवाली या किस्सी मुहर्त क लिए देवी देवताओं या कोई और तस्बीरें लगते ह
और या शोटे शोटे कलेंडर ह उन को उसे करने क बाद फेंक देते हाँ ये भी तो कारण हो
सकता ह उन की और किस्सी का दॆहान नहीं है भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता उमा
भरती ने भी एक सम्मेलन में इस बात को स्वीकार किया कि अगर धारी माता का मंदिर
विस्थापित नहीं किया जाता तो केदारनाथ में प्रलय नहीं आती। उमा जी आप भो सोच रहीं
हाँ की बहन मंदिर बन जाये तो उसका नाम उमा देवी हो जये गा 1 हिमाचल में बादल फटा
हे भां पर भी किस्सी बाबा को बिठा दो
·
४-ऐसे सरे धामों को तुरंत बंद कर देना
चाहिए सब ने देख लिया शंकर ने अपने भक्तो का क्या हाल किया छोटे छोटे बच्चे भी
नहीं बक्से इस शंकर ने बैसे यह है ही कहा इस के नाम पर पुरे देश में दुकाने खोल
राखी है कुछ लोगो ने जो पुरे देश को पागल बनाते है | इस तरह की सभी दुकानों को
तुरंत बंद कर देश के टेक्स देने बालो का पैसा सही जगह पर लगाना चाहिए
चार धाम यात्रा के संबंध में भ्रम मिटाएं
चार
धाम की यात्रा करते समय हो सकता है कि ज्यादातर लोगों को यह नहीं मालूम हो कि ये
चारों धाम कहां हैं और इनकी यात्रा का महत्व क्या है।
हाल ही के प्रचार माध्यम के चलते उत्तराखंड में गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा को ही चार धाम की यात्रा माना जा रहा है जबकि इन चारों की यात्रा करना तो एक धाम की यात्रा ही कहलाती है।
छोटा चार धाम :
हाल ही के प्रचार माध्यम के चलते उत्तराखंड में गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा को ही चार धाम की यात्रा माना जा रहा है जबकि इन चारों की यात्रा करना तो एक धाम की यात्रा ही कहलाती है।
छोटा चार धाम :
बद्रीनाथ में
तीर्थयात्रियों की अधिक संख्या और इसके उत्तर भारत में होने के कारण यहां के वासी
इसी की यात्रा को ज्यादा महत्व देते हैं इसीलिए इसे छोटा चार धाम भी कहा जाता है।
इस छोटे चार धाम में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ (शिव ज्योतिर्लिंग), यमुनोत्री (यमुना का उद्गम स्थल) एवं गंगोत्री (गंगा का उद्गम स्थल) शामिल
हैं।
हिमालय में तैंतीस हजार वर्ग
किलोमीटर में ग्लेशियर फैले हैं जो पूरे हिमालय क्षेत्र के 17 प्रतिशत रहे हैं।
गोमुख, मिलम, पिंडारी, खतलिंग व नामिक जैसे उत्तराखंड के हजारों ग्लेशियर पानी की
मीनारों का काम करते हैं। हजारों साल पहले गौमुख ग्लेशियर गंगोत्री से मिलता था, लेकिन
आज गंगोत्री व गोमुख के बीच की दूरी 19 किलोमीटर है।
पिछले दो सौ वर्षों में
गंगोत्री व गोमुख के बीच की दूरी ही नहीं बढ़ी। ग्लेशियर का स्नाउट भी खिसकता जा
रहा है। मिलम ग्लेशियर 1828 में मिलम गाँव से दो किलोमीटर पर बताया गया जो अब छः
किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर है। खतलिंग ग्लेशियर का मुख जो चौकी ताल पर था, अब
सात किलोमीटर दूर है। पिंडारी ग्लेशियर भी काफी पीछे चला गया।
सन् 1808 तक गंगोत्री
क्षेत्र में गंगा की मूर्ति के पूजन की परंपरा थी, लेकिन यहाँ दस-पंद्रह लोग ही
रहते थे। गंगा की मूर्ति के साथ ये लोग भी अपने गाँवों में वापस चले जाते थे। 1981
की जनगणना में गंगोत्री की स्थाई आबादी लगभग 125 के आसपास थी जो आज हजारों तक
पहुँच चुकी है। साधु-संन्यासी ही काफी पहले पहुँचे थे। चार धामों में से बद्रीनाथ
में ही यह संख्या श्रद्धालुओं के हिसाब से लाख तक पहुँचती थी। अब यहाँ एक हफ्ते
में लाख से अधिक श्रद्धालु आते हैं।
बद्रिनाथ धाम :
हिमालय के शिखर पर स्थित
बद्रीनाथ मंदिर हिन्दुओं की आस्था का बहुत बड़ा केंद्र है। यह चार धामों में से एक
है। बद्रीनाथ मंदिर उत्तराखंड राज्य में अलकनंदा नदी के किनारे बसा है। यह मंदिर
भगवान विष्णु के रूप में बद्रीनाथ को समर्पित है। बद्रीनाथ मंदिर को आदिकाल से
स्थापित और सतयुग का पावन धाम माना जाता है। इसकी स्थापना मर्यादा पुरुषोत्तम
श्रीराम ने की थी। बद्रीनाथ के दर्शन से पूर्व केदारनाथ के दर्शन करने का महात्म्य
माना जाता है।
बद्रीनाथ मंदिर के कपाट अप्रैल के अंत या मई के प्रथम पखवाड़े में दर्शन के लिए खोल दिए जाते हैं। लगभग 6 महीने तक पूजा- अर्चना चलने के बाद नवंबर के दूसरे सप्ताह में मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं।
बद्रीनाथ मंदिर के कपाट अप्रैल के अंत या मई के प्रथम पखवाड़े में दर्शन के लिए खोल दिए जाते हैं। लगभग 6 महीने तक पूजा- अर्चना चलने के बाद नवंबर के दूसरे सप्ताह में मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं।
जगन्नाथ पुरी :
भारत
के ओडिशा राज्य में समुद्र के तट पर बसे चार धामों में से एक जगन्नाथपुरी की छटा
अद्भुत है। इसे सात पवित्र पुरियों में भी शामिल किया गया है। 'जगन्नाथ' शब्द का
अर्थ जगत का स्वामी होता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है।
इस मंदिर का वार्षिक रथयात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं।
इस मंदिर का वार्षिक रथयात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं।
रामेश्वरम :
भारत के तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में समुद्र के किनारे स्थित है
हिंदुओं का तीसरा धाम रामेश्वरम्। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर
से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है। रामेश्वरम् में स्थापित शिवलिंग द्वादश
ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। भारत के उत्तर में केदारनाथ और काशी की जो
मान्यता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है।
मान्यता अनुसार भगवान राम ने रामेश्वरम् शिवलिंग की स्थापना की थी। यहां राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व एक पत्थरों के सेतु का निर्माण भी करवाया था, जिस पर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची। बाद में राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था।
मान्यता अनुसार भगवान राम ने रामेश्वरम् शिवलिंग की स्थापना की थी। यहां राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व एक पत्थरों के सेतु का निर्माण भी करवाया था, जिस पर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची। बाद में राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था।
गुजरात राज्य के पश्चिमी सिरे पर समुद्र के किनारे स्थित चार धामों में से एक धाम और सात पवित्र पुरियों में से एक पुरी है- द्वारका। मान्यता है कि द्वारका को श्रीकृष्ण ने बसाया था और मथुरा से यदुवंशियों को लाकर इस संपन्न नगर को उनकी राजधानी बनाया था।
कहते हैं कि असली द्वारका तो समुद्र में समा गई थी लेकिन उसके अवशेष के रूप में आज बेट द्वारका और गोमती द्वारका नाम से दो स्थान हैं। द्वारका के दक्षिण में एक लंबा ताल है, इसे गोमती तालाब कहते हैं। इसके नाम पर ही द्वारका को गोमती द्वारका कहते हैं। गोमती तालाब के ऊपर नौ घाट हैं। इनमें सरकारी घाट के पास एक कुंड है जिसका नाम निष्पाप कुंड है। इसमें गोमती का पानी भरा रहता है।
आपकी लेखनी के विचारों की गहराई मुझे भावविभोर कर रही है। आपका लेख मनोहारी है। मेरा यह लेख भी पढ़ें बद्रीनाथ मंदिर का इतिहास
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