Friday, December 15, 2017

मथुरीको बाख्रो


मथुरियक बकर
( कुमायुनी भााषामा लेखिएको यो कथालाइ कथाकार अनिल कार्कीको कथासंग्रह " भ्यास और अन्य कहानियाँ" बाट साभार लिइएकोछ । )


थुरि सिध् दिमागक मैस बिल्कुल न छी, न वीक दिमाग ठीक चलछि। नान् छना उकै लकु मार गयोछि, जै कारण उ सीध ढंगल हिट्ले न सकन और साफ बोलि ले न सगन। पहाड़ में कहावत छू कि ’डुण पाजि, काण् खाजी और लाट उत्पाती हूं।‘ मथुरि ले कम नहा, वील आपुण जीवन में कभै हार न मानि। उ तो नानतिनन वाल आदिम छू। या वीक बार में कैई जाओ तो वीक घर में सैणि छू, भरी पूरी परिवार छू। यो अलग ढंगक् मैसकि आपुण एक भाषा छू, जकै गूँ लोग समझ तो सगनन, लेकिन वीक दगाड़ बोल नी सगन।
       ब्यावकै अनियार हुण बखत उ लड़खडू़नैं टार्च ली भैर ऊणछी तो पाल् गूँ लोगों ले वीक त्यरछ-म्यरछ टार्चक फोकस हिलूणक कारण उकै पछणि दी और कूण पैठन कि “उ तो जरूर मथुरि हुन्यल”। जब उ उनार मुखअक समणिले पुजिभैर कूण पैठअ कि “म्यार बकर हरा ग्यो, बताओ धै को-को घा काटणि ही जाराछि बण! अगर तिमिल ले म्यार बकर कति द्यखौ तो बताओ मैंकैं, मैं तो दिन भर परेशान है गईं आज।” घा काटणि वालनैल् छाजन लै भे भ्यारकै देख भैर कूण पंैठीं- “नै नै जिभौज्यू हमिल न दैय्ख! होय दानसिंह कैं जरूर देखौ ’पात्लि गड़ा‘ तरफ कान् में बडि़याठ धरि भेर लकाड़नहि जाणछी कि पत्त उनिल देखौ जब? य बात सुणि भेर मथुरियल आपुण टार्चक बटन में काटी-फाटी बुड़ अंगुल धर भे पाल गूँ बे मल्धार तक अन्यारमें आपुण नान्छनाक् दगडु़ दानसिंहक् गुन्याव तक पुजौ तो वाँ पेली बे दानसिंह ठाड़ छि। जसै् दानसिंहल् मथुरि कैं देखो तो गरम जोशक दगाड़ नमस्कार कर और तुरंत पुछण पैठ् कि “त्यर बकर हरा र हुन्यल न आज? तू ले यार? कि बार छू आज?” मथुरि आपुण भाषा में बोलण लागौ ’मनलबार!‘ आज तो मंगलबार छू। दानसिंहल् मथुरि कैं नड़क्या भेर को “यले क्वे बार छू आपुण दगडु़क् घर उणक! बुधबाराक् दिन आ जनै!”
       मथुरि कैं लागौ कि क्वै भारि गलती है गे आज उ कयाँ, य सोचि भेर मथुरि झैपण पैठौ। असलमें बचपनक् दगड़ु जै भ्यो दानसिंह मथुरियक्, दगड़ में माछ मारी भ्याय दुयिनले। और तो और जब मथुरि कंै लकु पडौ़ ठीक उदिन बयावक चपेट में उन-उनै बचि छि दानसिंह ले। लेकिन जदिनभे घर गृहस्थी हैगे, उदिन भै दुयिनाक खुट् जस बाधि गईं। आब कभै-कभै मिलनन् तो दागाड़ में एक बीड़ जतुक पी सकनन् बस। और तो और कबखतै कैका दुकान में या हिटनबाट् भेंट हंै जैं जबत एक दुसर् छैं इतुकै पूछि सकनन् कि नानतिन कस छिन यार! मथुरि न दानसिंहक् बार् में पुछि सकँू और न दानसिंह मथुरि छै कै सकूँ कि “कस छै रे तू?” लेकिन आज दानसिंह ले कूण पैठ् “ठीक टैम में आरछै रे! इदू सालन में पैल बखत फुरसतल भेट हुणैं, आब् खाण खा भैर जालैं!” मथुरि कैं लागो कि बकर खोजणि ही नै, बल्कि उ दगड़ु खोजणि आ रौ। उकैं नान्छनानक् दगड़ु दानसिंह याद एगो जैक दगाड़ उ गङक् रिवाड़ में दिन भरि बजरी में नाङगड़ पडि़ रुछि और गरम हुण में गंङ में डुबकी लगूछि, फिर गरम बजरी में पड़ी जाछि। कधेलि पेटक ओर तो कधेली पीठक ओर। लेकिन आब् उ यस बिती अनुभव छि कि जकंै क्वे अनुभवक न्यात याद कर सकछी। मथुरि या दानसिंह जोर-जोरल धात् लगै भेर यस ले न कैं सगछि कि हमिल गंङ में नाङड़ ना। लेकिन उ जरूर आपुण च्यालनन् छैं कैं सगछि कि “अगर गंङ में नाणि जाणछा तो बजरी में न खेलिया, आँख भतौर लै जाल और शरीर काउ पड़ जाल, जल्दी-जल्दी नैं भैर घर आया, दिन बिथत न करिया और वैं न रया।” पैली और आज में भौते फरक है ग्यो मथुरि कूण पैठ् “मैं न रुकनि दानसिंह म्यार बकर...” 
       दानसिंहल् जवाब द्यो कि “नै-नै मैं क्या न सुणनि, तुकै रुकण पड़ल, आज नई फसलक नई खाण छू हमार घर, शिकार बणा राखो और थ्वाड़ लाल शराब ले छू। ग्यूंक् कटै् और पिसै ले हैगे आज, ईष्ठ-मितुर सब आरान, कदुक भल संजोेग छू कि तु ले आरछ, आब नै न कये।” 
इदुक में दानसिंहक् चेलिल् मथुरियक हाथ में चहाक् गिलास थमा द्यो, मथुरि यस माय देखि भैर खुश है ग्योछि, उकैं लागअ कि 
कधैलि दानसिंह कैं आपुण घर बुला भैर यस खातिरदारी करुल कि उलै याद धरल् और मथुरि कूण पैठ् “पर...दान सिंह मैं तो बकरक् बारमें खोज-खबर करणहि आरछि भाई...”
       दानसिंह कैं फिर खीझ भै और कूण पैठ् “भोई कर लिये खोज-खबर, कैका गोरु-बाछों दगाड़ लागि ग्यो न्यल, भोई पत्त् चलि जाल, अछयान बाघ ले न लागि रअ जंगल, तु चिंता न कर, भोई मिल जाल त्यार बकर।”
आब मथुरि चुप है ग्योछि और नौ-रवाट् पाकण लागि रौछि। मेहमान सब एक जाग गुन्यावमें बैठ ग्याछि। बाँजक लकाड़क् आग् में चढि़ लू भध्याव् में शिकारक् भिटकण आवाजक बीचमें, शराबक बोतलकैं ताउ में दानसिंहले हल्क कूणले मारी जबत ख्याटक् आवाजक दगाड़ बोतलक शील खुलि गे और चाखमें बैठ भैर स्टीलक् गिलास में शराब हालि भेर दानसिंहल् छाजबे भ्यारकै देखौ और धात् लगूँण पैठ् “अरे थ्वाड़ राॅग् शिकार निकालि भै तो दिओ।”
       थ्वाड़ देर में दानसिंहक् घरवालि एक थाई में सुकि शिकार चाख में धरि भैर आगछि तो फिर दुईनल् पूरि बोतल पी दे। आब् उनार अणकसि बातोंनक् न पूँछड़ पत्त छि और न हीं ख्वारक। मथुरि तो आड़-तिरछ पैलि भै छि। शराब पी भैर उ ज्यादा त्यरछै है ग्योछी। जब दानसिंहल् वींहैं मजाक कर भै कौ- “चल पैं आब सोमबार बे मंगल इतवार तकक् नाम बता दे यार मथुरि।” तो वील बत्तीक् हल्क् उज्याव में आपुण बुँ हाथक बुरमट्ठी आंगुल आपुण टिट् िअंगुलक् पैली पाय में राखि भैर गिड़न शुरू कर् पैठौं- “चों, मनल, पुच्छ, भीपें, चुक्क्ल, छनज, इताल” मथुरि लाटक् यस बुलण सुणि भैर दानसिंह हँस ग्यो और दानसिंह देखि भेर मथुरि, और फिर दुईय् हसैण पै गईं, मजाक-मजाक में सामणि धरी बत्ती जमीन में घुरि गै, और मिट्टीतेलक बास पुर भतर फैल गै। जब तक दानसिंह बत्ती जुगुत में लागिरछि तब तक मथुरियल आपुण चार सैल वाल टार्च निकालि भैर आपुण टार्च जला दे और टार्चक फोकस टैड़-म्यड़ हिलण-हिलण घरक धुरि में टेकि ग्योछि, तब वील ध्यानल देखौ कि जै जाग् टार्चक फोकस् अटक् रोछि उ जाग् धड़है अलग बकरक् ख्वर लटकी छि। मथुरि चैंकौ और फिर उकैं आपुण बकरक् याद आ गेछि, वील ध्यानल् चा जबू तो आपुण बकर कैं पछणि ग्योछि, किलैकि वीक काऊँ बकरक् चानि में सफेद बालनकि चिंदी छि, फिर वील टार्च कैं हटै भैर दानसिंहक् तरफ हीं लगा द्यो। उकैं लागो कि दानसिंहल् खिला-पिला भै मूतल चुट्ठै दी। वीक मन भ्यो कि अल्लै कैं द्यूँ उहैं “साल म्यार बकर मैंकैं खिला भैर, त्यरि तौलि त्यार मुख में रौलि कर दयो त्वील।” लेकिन जब वील दानसिंहकंै घूरौ तो दान सिंह झिझक भै इदुकै कै बैठ कि “बकरक मुनि छू”
       मथुरि जल्दी-जल्दी उठौ और दानसिंहक् घर वालन छै भली कै मिलि भैर टार्च जला भैर घर ही बाट लागि ग्यो। शायद उधैल रातक दस-ग्यारह बाजि रौ हुन्याल, मथुरि क्वेेले दार्शनिक सवालल न टकराईं और सुन्न झै है ग्योछि। करीब आधुक बाट हिट भैर आपुण हैं कूण लागौ - “ठीक भ्यो कि मैंल दानसिंह छ न कय कि य म्यारअ बकर छू...कि पत्त् जब म्यर बकर न छि, चनेल बकर और ले तो है सकनन्। अगर म्यार बकर हुन तो दानसिंह मैकैं क्या खिलूँन वीक शिकार? क्या पिलून लाल शराब? कति मैं उधेलि कै दिनि कि म्यार बकर मैंकैणि खिलूणरछै तू चोर साल... तो कि इज्जत बचनि इष्ट-मितुरन में म्यार बचपनक दगड़ु दानसिंहकि। चलो आज एक पाप हुणल बचि ग्यो म्यार हाथों...”
       फिर उ द्विमन है ग्योछि “दानसिंहकैं बिना म्यार बताय कसिकै पत्त् चल् कि म्यार बकर हरारौ...। और शिकार ले भौत कौंल छि पठ्क जस। म्यार बकर ले आठ-नौ महीणक तो छि...”फिर वील खुद छै को “नै-नै बचपनक् दगणु छू दानसिंह, खानदानी आदिम छू कभै यस न कर सगन।” लेकिन बात कंै उलझण जै पैठी मथुरि कंै, और घरक् करीब-करीब पुजण में जब वीक नशस् उतर ग्योछि तो कूण पैठ्- उ म्यर बकर छि, आज तो पुर इलाक में कैलै बकर न काट, फिर दानसिंह शिकार कां भैर ला्? जब उ रात्त बण् लकाड़ काटणि जारहि तो दुकान कबखत ग्यो? चुत्ति साल लकाड़नक दगाड़ म्यार बकर ले काटि भै ला हुन्यल। 
मथुरियल कुछ देर बाद सोचि भैर कौ “नै-नै कैछैं य बात बतूण ले पाप होल। दानसिंहक् करम उकै दुखाल एक दिन, बचपनक् दगड़ु छू म्यार। मैल वीहैं दगडु़ कै राखौ, आब मैकैं कूण पड़ल कि बकर कै बाघ लिगौ, पाल गूँ घा काटणि वालनल् बकर में बाघ कैं झपटण देख् िभेलि। बैंकि आज बे कभै दानसिंहक् दगाड़ बात नि करूँ।” वील द्वार खोलौ जब् मथुरियक घरवालि कौ- “क्वै खोज-खबर मिली?”
       मथुरियल को होय मधुली मिलि! हमार बकर कैं कुकुरि बाघ लिजारौ मधुली!
       मधुलील मथुरि कैं पाणिक गिलास थमा भैर को “क्वे बात न, आब्बै थ्वाड़ दिनन में बकर फिर ब्याणि छू, फिर उस्सै चनेलि पाठ् द्यौल हमार बकर। दुख किलै मनणछा कि चिंता करण आब्!” जवाब में मथुरि इदुकै कैं सगौ कि “बकर तो फिर पाठि देलि मधुली, पर नान्छनक् दगडु़ दानसिंह काँ भै मिलल! 
एक लम्ब् सांस ले भैर मथुरि बाभ्यो निवारक् खाट में चधरलि मुँख ढकि भैर पडि़ ग्यो।”

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