Sunday, November 15, 2009

उहिले र अहिलेका केदारस्तुति



















स्थानिय लोकसाहित्यमा केदारगाथा



तम गुसाइ केदार कौन चलाइ भै मनेषु हमी कै का,
मनेषु हमि कैका-- गुसाइ मेरा-- मनेषु हमी कैका।।
रागस पुरिको राज्य होलो भाइ मनेषु हमी कैका,
मनेषु हमी-------- ------------------------।।
तम गुसाइ ससालिंङ क्यान चलाइभै मनेषु हमी कै का,
मनेषु हमि कैका---------------------------।।
रागसपुरीको राज्य होलो भाइ मनेषु हमी कै का,
मनेषु हमी कैका-------------------------‍।।
(यसप्रकार प्रतेक देवताको नाम पुकार गर्दै “तपाइ मेरा मालिक किन अन्यत्र जान थाल्नु भयो? हामी मनुष्यहरु कता जाने हो? यहाँ त राक्षसहरु पो राज गर्ने भए!” भन्दै लोकपर्बको अवसर पारेर लोक लयमा गितीनृत्यको आयोजन हुन्छ।)
(१)
शिखर सियालो घाम गुसाइ मेरा शिखर सियालो घाम,
बगणा सिमसिम्या पानी गुसाइ मेरा बगणा सिमसिम्या पानी।।
भोका तिसा तेरा द्वार अया गुसाइ मेरा भोका तिसा तेरा द्वार अया,
मन शुद्ध तन शुद्ध भयो गुसाइ मेरा मन शुद्ध तन शुद्द भयो ।।
तेरो दियो तोइलाइ चणौलो गुसाइ मेरा तेरो दियो तोइलाइ चणौलो ,
हम तेरा काखका बला गुसाइ मेरा हम तेरा काखका बला।।
(२)
तेरि सेवा आयो केदार ,मेरि सेवा मानिदे केदार
भोका पेट आयो केदार, मेरि सेवा मानिदे केदार
तिना केश आयो केदार, मेरि सेवा मानिदे केदार
मै तेरा भाणिको फुल, मेरि सेवा मानिदे केदार
मै तेरा काखको बालो, मेरि सेवा मानिदे केदार
मै हिट्या बिराना बाटा, ऐतिर लागेइ केदार
मै कभै एकलो भया, डिठिमाइ भएइ केदार
सुखदुक जे भया पनि,जुणि जन छाणेइ केदार
दिन रात काममा हौला, तै छाया दियेइ केदार
लटागणा हम तेरा पूत, बोलिमाइ बसेइ केदार
हम तेरा भाणिका फूल,पुजामाइ लायेइ केदार
माला माइ औणिन्या फुल,धुलामाइ जन झौ केदार
तेरा थात मेरो खुट्टा पण्या,हातकि छाया दे केदार
पुजाकि बकत होइगे मेरि सेवा मानिदे केदार
भाणिका फूलको रंङ,ओइलान जनदे केदार
भाणिका फूलकि बास,मण्णल राखिदे केदार।।
 (३)
 

      शंकराचार्यविरचित दशश्लोकी शिवस्तोत्र



न भूमिर्न तोयं न तेजो न वायुः
न खं नेन्द्रियं वा न तेषां समूहः
अनेकान्तिकत्वात् सुषुप्त्येकसिद्दः
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥१॥

न वर्णा न वर्णाश्रमाचारधर्मा
न मे धारणाध्यानयोगादयोपि
अनात्माश्रयाहंममाध्यासहानात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥२॥

न माता पिता वा न देवा न लोका
न वेदा न यज्ञा न तीर्थ ब्रुवन्ति
सुषप्तौ निरस्तातिशून्यात्मकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥३॥

न साख्यं न शैवं न तत्पाञ्चरात्रं
न जैनं न मीमांसकादेर्मतं वा
विशिष्टानुभूत्या विशुद्धात्मकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥४॥

न चोर्ध्व न चाधो न चान्तर्न बाह्यं
न मध्यं न तिर्यँ न पूर्वाऽपरा दिक्
वियद्व्यापकत्वादखण्डैकरूपः
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥५॥

न शुक्लं न कृष्णं न रक्तं न पीतं
न कुब्जं न पीनं न ह्रस्वं न दीर्घम्
अरूपं तथा ज्योतिराकारकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥६॥

न शास्ता न शास्त्रं न शिष्यो न शिक्षा
न च त्वं न चाहं न चायं प्रपञ्चः
स्वरूपावबोधो विकल्पासहिष्णुः
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥७॥

न जाग्रन् न मे स्वप्नको वा सुषुप्तिः
न विश्वौ न वा तैजसः प्राज्ञको वा
अविद्यात्मकत्वात् त्रयाणं तुरीयः
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥८॥

अपि व्यापकत्वात् हितत्वप्रयोगात्
स्वतः सिद्धभावादनन्याश्रयत्वात्
जगत् तुच्छमेतत् समस्तं तदन्यत्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥९॥

न चैकं तदन्यद् द्वितीयं कुतः स्यात्
न केवलत्वं न चाऽकेवलत्वम्
न शुन्यं न चाशून्यमद्वैतकत्वात्
कथं सर्ववेदान्तसिद्धं ब्रवीमि ॥१०॥
इति श्रीमद्शंकराचार्यविरचितं दशश्लोकी समाप्तंम्

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