Wednesday, September 17, 2014

खतड़वा संकराद




बच्चों-किषोरों का झुंड
उल्लास से भरा
इकट्ठा करने में जुटा है केड़-पात
मक्के के ठँूठ , सूखे झील-झंखाड़
ढूँढ-ढूँढकर लाए जा रहे हैं
गाँव भर से
सबसे ऊँची टिकड़ी में गाँव की
बनाया जा रहा है ढेर ।
घसियारिनें लगी हैं
घास के पूले के पूले काटने में
भर पेट खिलाना जो है आज के दिन
इतना कि
गाएँ उसी का सोत्तर बनाकर सो जाएंँ।
षाम होने को आई
लौट रही हैं घसियारिनें
घास का लूटा सा ही पीठ में लादे
इसी घास से बनाए जाएंगे बुड़ि के पुतले
डाले जाएंगे -
गोशाला की छत पर
गोबर के खात पर
लौकी-कद्दू-ककड़ी -तोरई के बेलों में
एक साथ ले जाई जाएगी
टिकड़ी में बने ढेर में जलाने ।
अब सारी तैयारी पूरी हो चुकी है
जल उठी है मषालें
सिन्ने के ढाँक साथ बुड़ि का पुलता
पकड़कर
भीतर से लेकर गोठ के ओने-कोने से
झाड़-पोछकर
बाहर भगाया जा रहा है बुड़ि को।
हाँेक लगाकर -
‘भ्यार निकल बुड़ि ,भ्यार निकल ’।
दौड़ पड़े हैं सभी टिकड़ी की ओर
मषाले लहराते
समवेत स्वर में चीखते-चिल्लाते
सार गाँव गूँज उठा है
/ऐसे में भला बुड़ि कहाँ छुपी रह सकती है
कितना सुदंर लग रहा है गाँव
अंधकार दुबक रहा है जान बचाकर ।
एक इषारा पाते ही
धू-धू जल उठा है केड़-पात का ढेर
झोंक दी गईं हैं उसमें सारे के सारे पुतले ।
फैल गईं हैं आसमान में असंख्य चिनगारियाँ
हर पहाड़ी ने
थाम ली हो जैसे एक-एक मषाल
और समवेत स्वर चक्र बन घूमने लगे हों घाटी में ।
पता नहीं कब से
हर साल
बुड़ि को खदेड़कर सुपुर्दे खाक करते
आ रहे हैं ये लोग
पर बुड़ि है कि फिर -फिर लौट आती है।
By-mahesh chandra punetha/

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